क्या मनुस्मृति में वर्णित वर्णव्यवस्था व्यावहारिक है?

मूकनायक मीडिया ब्यूरो | 05 जुलाई 2024 | जयपुर : यदि आदि संविधानकार मनु है तो वैदिक साहित्य से चार गुना बड़ा बौद्ध पाली साहित्य में मनु का कोई नामों-निशान क्यों नही है…?? बाबासाहब जी का मनु से कोई ख़ास विरोध था न ही अन्य किसी ब्राम्हण साहित्य से, मनु का विरोध खुद हिंदुओं और ब्राह्मणों का था। जो आर्य समाज या सत्य शोधक समाज से संबंधित थे चुकी बाबासाहब जी के पिता रामजी अंबेडकर के तत्वनिष्ठ सत्य शोधक समाज से मैत्री सम्बंध थे।

इस कारण आर्य समाज का एक गुट बाबासाहब जी से संवेदनशील था इसीलिए उन्होंने 1936 में लाहोर के ज़ात पात तोड़क मण्डल के सम्मेलन में बाबासाहब को अध्यक्षता का अनुरोध किया था। इसी तरह सत्यशोधक समाज के कई ब्राम्हण कार्यकर्ताओ के और बाबासाहब के निकट मित्रता पूर्ण संबंध थे। 

इसीके चलते 1927 में महाड़ (नाशिक) के( ब्रम्ह ण) बापूसाहेब सहस्त्र बुद्धे की अध्यक्षता में मनुस्मृति दहन का आयोजन किया गया। ज्ञात हो मनु के सबसे बड़े दुश्मन बाबासाहब नही बल्कि फुले है फुले ने ही मनुस्मृति जलाने योग्य है इस तरह का ज़िक्र अपनी ‘अखण्डदि’ नामक पुस्तक में किया है। प्रचलित वर्ण-व्यवस्था का मूलाधार मनुस्मृति है।

क्या मनुस्मृति में वर्णित वर्णव्यवस्था व्यावहारिक है?

मनुस्मृति की रचना बहुत अर्वाचीन है, यह सभी ऐतिहासिकों का मत है। मनुस्मृति मनु की बनाई हुई है-ऐसा मानना भी एक बड़ी भारी भूल है। मनु के नाम से किसी दूसरे ने ही इस भयंकर पुस्तक की रचना कर दी है। तभी आज कल सभी मनुस्मृतियों में यह श्लोक पाया जाता है- इत्येतत् मानवं शास्त्रं भृगुप्रोक्तं सनातनम् अर्थात् यह भृगुऋषि की कही हुई है। शूद्रों को पूर्ण रूप से पददलित कराने वाले मनुस्मृति के 10वें अध्याय का निचोड़ सत्यार्थ प्रकाश के 10 समुल्लास में विद्यमान है।

स्वामी दयानन्द जैसे आदर्श सुधारक लिखते हैं कि- शूद्र लोग आर्यों के घर में जब रसोई बनावें तब मुख बाँध के बनावें क्योंकि उनके मुख से उच्छिष्ट और निकला हुवा श्वास भी अन्न में न पड़े। मनुस्मृति के 10वें अध्याय में कितना भारी षड्यन्त्र है उसका नमूना इस एक श्लोक में और पढ़ लीजिए। ‘यो लोभात् अधमो जात्या जीवेत् उत्कृष्ट कर्मभिः।’  तें राजा निर्धनं कृत्वा क्षिप्रमेव विवासयेत्॥10/96॥ अर्थात् जो शूद्र, अछूत या शिल्पी जीविका के लोभ से अच्छे कर्मों द्वारा अपने जीवन को बिताने लगे तो राजा इन सबका धन छीन ले और तुरन्त देश से निकाल देवें। कैसा रौलेट एक्ट बनाया है।

वर्णाश्रम का इतिहास चारों वेदों में कहीं भी वर्ण पद का उल्लेख नहीं मिलता है। सर्वप्रथम वर्ण पद भगवद्गीता में पाया गया है, जो निम्न प्रकार हैः- ‘चातुवर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः’ (४/१३) श्लोक के इस अंश में परमेश्वर द्वारा गुण और कर्म के आधार पर चार वर्णों की सृष्टि किया जाना बताया गया है। यदि हम महाभारतकाल में उपलब्ध वर्णव्यवस्था का अध्ययन करें तो पाते हैं कि उस समय भी जाति के आधार पर ही वर्णव्यवस्था थी।गुण और कर्म के आधार पर वर्णव्यवस्था उस समय भी स्थापित नहीं की जा सकती थी।

इस विषय में श्रीवसन्तकुमार चट्टोपाध्याय एम. ए. का कहना है- ‘‘ यदि किसी व्यक्ति की जाति उसकी वृत्ति वा कर्म पर निर्भर होती तो द्रोणचार्य क्षत्रिय कहलाते क्योंकि उनका व्यवसाय युद्ध करना था। पर वे जन्म के कारण ही ब्राहमण थे। उधर द्रोण-पुत्र अश्वत्थामा में कोई भी गुण-कर्म ब्राहमण जैसे न थे। क्रूर स्वभाव था। कर्म क्षत्रिय का करते थे।

पांडवों के शिविर मे द्रौपदी के पुत्रों का वध करने पर जब वे पकड़े गए तो उन्हें ब्राहमण मान कर मृत्युदण्ड नहीं दिया गया, केवल उनका सिर मूडकर निष्कासित कर दिए गए थे। युधिष्ठर ब्राहमण स्वभाव के थे। जघन्य अपराधी को भी क्षमा कर देते थे। भीम तो जरा सी बात पर युद्ध को तैयार हो जाते थे। यदि गुणों को वर्णों का कारण माना जाता तो दोनों का पृथक्-पृथक् वर्ण मानना चाहिए था।

पर थे दोनों क्षत्रिय ही। कर्म से वर्ण परिवर्तन कब हुआ ?’’ उक्त तथ्यों से यह प्रमाणित होता है कि महाभारत काल में जन्मना जाति व्यवस्था लागू थी। गीता के अनुसार वर्णाश्रम धर्म का पालन करने में लाभ और परिवर्तन से हानि- गीता में कहा गया है- स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः (१८/५४) अर्थात् अपने ही वर्णधर्म के पालन में मनुष्य की उन्नति होती है।

गीता में ही कहा गया है- श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः पर धर्मात्स्वनुष्ठितात्। स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।। (३/३५) अर्थात् सुन्दर रूप से अनुष्ठित परधर्म की अपेक्षा गुण रहित होने पर भी निजधर्म श्रेष्ठतर है अपने (वर्णाश्रम) धर्म में मृत्यु भी कल्याणकारी है, दूसरों का धर्म भययुक्त या हानिकारक है।

गीता में ही अन्यत्र कहा गया है –संकरो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च। (१/४२) अर्थात् वर्ण-संकरता कुल नष्ट करने वालों को और कुल दोनों को निश्चय से नरक में ले जाती है। इस श्लोक के अगले श्लोक में कहा गया है- दोषैरेतैः कुलघ्नानां वर्णसंकरकारकैः। उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः।। (१/४३)

अर्थात् कुल का हनन करनेवाले लोगों के वर्ण-संकरता उत्पन्न करने वाले इन दोषों के कारण जाति-धर्म तथा सदा से चले आ रहे कुल-धर्म नष्ट हो जाते हैं- न समाज की परम्पराएं बनी रहती हैं, नकुल की परम्पराएं बनी रहती हैं। महाभारत काल में यदि वर्ण और जातिभेद जन्म से नहीं था तो गीता में कुल धर्म और जाति धर्म की बात कहां से आ गई ? वर्ण व्यवस्था का विधान स्मृतियों, विशेष रूप से मनुस्मृति में है।

जन्मजात वर्णव्यवस्था से हानियां–

  1. जन्म से वर्ण मानने से एक वर्णवाले मनुष्य के लिए दूसरे वर्ण में प्रवेश के द्वार सदा के लिए बन्द कर दिए जाते हैं।
  2. मनुष्यों में जात्याभिमान उत्पन्न होता है और वे बिना गुण व योग्यता के भी अपने को अन्यों से श्रेष्ठ समझने लगते हैं।
  3. जात्याभिमान के कारण समाज में द्वेष और घृणा उत्पन्न होती है।
  4. शूद्र अपने अच्छे गुण, कर्म, सदाचार और भक्ति से भगवान् को प्राप्त कर सकता है, परन्तु कभी शूद्र से ब्राहमण नहीं बन सकता है।

जाति व्यवस्था का संक्षिप्त इतिहास जैसा कि उपरोक्त रूप से उल्लिखित किया गया है कि महाभारत काल में भी वर्णव्यवस्था न होकर जाति व्यवस्था लागू थी। महाभारत के बाद तो गुण-कर्म का आधारपूर्ण रूप से विलुप्त हो गया। मनु ने ऐसे ब्राहमणों का वर्णन किया है जो पतित, नास्तिक और नपुंसक थे। (मनुं २/१५०) अब गुण-कर्म की कसौटी को तिरोहित कर दिए जाने के बाद वर्ण का निर्धारण जन्म के आधार पर ही किया जाने लगा। उसके बाद तो ऊँच-नीच का भेद और भी बढ़ने लगा।

सूत्र ग्रन्थों की रचना के समय तो उन्हें अत्यन्तहीन और नीच समझा जाने लगा था। गौतम धर्मसूत्र (१२-४) के अनुसार यदि ‘‘शूद्र वेद मंत्र का उच्चारण करे तो उसकी जीभ काट देनी चाहिए। यदि वेद को याद करे तो उसका शरीर चीर डालना चाहिए।’’ बुद्ध के प्रादुर्भाव के समय तक भारत के सामाजिक संगठन का रूप अत्यन्त विकृत हो गया था।

बौद्ध साहित्य में इसी कारण से वर्णभेद की कटु आलोचना की गई है। जैन धर्म के प्रवर्त्तक वर्धमान महावीर भी इस व्यवस्था के कटु आलोचक थे। बौद्ध और जैन धर्म के प्रवर्त्तकों ने इन बुराइयों को दूर करने का प्रयास किया परन्तु उन्हें सीमित सफलता ही प्राप्त हो सकी थी।

बुद्ध ने अपने समय में वर्तमान जन्मना जाति व्यवस्था के विरुद्ध आवाज उठाई और जन्म के आधार पर किसी को उच्च या नीच नहीं माना परन्तु जन्मना जाति व्यवस्था पर उनका कोई प्रभाव नहीं पड़ा और जातिव्यवस्था पहले की तुलना में अधिक विकृत हो गई। महर्षि पतंजलि (२०० ईं० पूं०) के समय तक जाति व्यवस्था का स्वरूप और अधिक विकृत हो चुका था।

पतंजलि ने शूद्रों के महाभाष्य (२/४/१०) में दो भेद किए हैं- ‘‘ एक अबहिकृत और दूसरे बहिकृत। तक्षा और अयस्कार आदि जो द्विजों के बर्तन छू सकते थे, अबहिकृत या अनिरवसित जो द्विजों के पात्र नहीं छू सकते थे, चाण्डाल और मृतप आदि निरवसित या बहिकृत शूद्र थे।’’ समय के साथ-साथ वर्णभेद अत्यन्त संकीर्ण और कठोर हो गया।

जातीय भेदभाव को मिटाने के प्रयास– समय-समय पर अनेक महापुरुषों ने जातीय भेदभाव को मिटाने और समाज में समानता लाने के प्रयत्न किए। इन महापुरुषों का कहना था कि अच्छे गुण, कर्म, सदाचार और भक्ति से मनुष्य ऊँचा पद प्राप्त कर सकता है।

गौतम बुद्ध और वर्धमान महावीर अपने प्रयासों में आंशिक रूप से ही सफल हो पाए थे। अन्य महापुरुषों में रामानन्द, चैतन्य, नानक, कबीर आदि प्रमुख थे। ये सन्त महात्मा भी हिन्दू समाज में व्याप्त ऊँच-नीच और छूत-अछूत की घोर समस्या का निदान नहीं कर सके थे। उन्नीसवीं शती के पूर्वाद्ध में इस देश में नवजागरण का सूत्रपात हुआ। इस समय पर समाज सुधार के क्षेत्र में ब्राहमसमाज, थियोसोफिकल-सोसाइटी और प्रार्थना

समाज ने मुख्य रूप से ऊँच-नीच और छूत-अछूत की घोर समस्या का निदान करने का प्रयास किया। प्रार्थनासमाज जिसकी स्थापना १८६७ में हुई थी के लोग जाति-प्रथा उन्मूलन, विधवा पुनर्विवाह, स्त्री शिक्षा को प्रोत्साहन देते थे और बाल-विवाह निषेध का प्रचार करते थे। ये लोग कुरीतियों के विरोध में घोर आन्दोलन करते थे तथा सुधार चाहते थे परन्तु व्यवहार में, इनके हिन्दू समाज के कर्मकाण्डों में उलझे होने के कारण सामाजिक सुधार के क्षेत्र में इनका प्रभाव नगण्य रहा।

इसी प्रकार ब्राहमसमाज और थियोसोफिकल-सोसाइटी भी जाति-प्रथा उन्मूलन के सम्बन्ध में कोई विशेष प्रगति नहीं कर पाए थे। ऐसे समय पर ऊँच-नीच और छूत-अछूत की घोर समस्या का निदान करने और वर्णाधारित समाज की स्थापना हेतु उन्नीसवीं शती में महर्षि दयानन्द सरस्वती और उनके द्वारा स्थापित संगठन आर्य समाज ने इस क्षेत्र में पदार्पण किया।

महर्षि दयानन्द सरस्वती और आर्यसमाज द्वारा किए गए प्रयास– महर्षि दयानन्द सरस्वती और आर्यसमाज गुण, कर्म और स्वभाव से वर्णव्यवस्था स्वीकार करता है, जन्म से नहीं। इसका आधार यजुर्वेद का यह प्रसिद्ध मंत्र है- ब्राहमणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्य कृतः। ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रोऽजायत।। (३१/११)

पौराणिकों द्वारा उक्त मंत्र का अर्थ निम्न प्रकार किया गया है- ब्राहमण परमात्मा के मुख से उत्पन्न हुए, क्षत्रिय उसकी बाहों से, वैश्य जंघाओं से और शूद्र पैरों से उत्पन्न हुए। महर्षि दयानन्द ने अपने कालजयीग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में उक्त मंत्र के सम्बन्ध में निम्नप्रकार व्याख्या की है- व्याख्या– इस मंत्र का जो तुमने अर्थ किया है वह ठीक नहीं, क्योंकि यहां पुरुष अर्थात् निराकार, व्यापक परमात्मा की अनुकृत्ति है।

जब वह निराकार है तो उसके मुखादि अंग नहीं हो सकते, जो मुखादि अंग वाला हो तो वह पुरुष अर्थात् व्यापक नहीं।और जो व्यापक नहीं वह सर्वशक्तिमान् जगत् का स्रष्टा, धर्त्ता, प्रलयकर्त्ता, जीवों के पुण्य-पापों को जान के व्यवस्था करने हारा, सर्वज्ञ, अजन्मा, मृत्यु रहित आदि विशेषण वाला नहीं हो सकता, इसलिए इसका अर्थ है कि जो (अस्य) पूर्णव्यापक परमात्मा की सृष्टि में मुख के सदृश सब में मुख्य उत्तम हो वह ब्राहमण (बाहू) बाहुर्वैबलम्; (५/४/१/१) बाहुर्वैवीर्यम्; (६/३/२/३५) शतपथब्राहमण।

बल-वीर्य का नाम बाहु है, वह जिसमें अधिक हो सो (राजन्यः) क्षत्रिय (ऊरू) कटि के अधोभाग और जानु के उपरिस्थ भाग का नाम ऊरू है, जो सब पदार्थों ओर सब देशों में जावे-आवे, प्रवेश करे वह (वैश्यः) वैश्य और (पद्भ्याम्) जो पग के अर्थात् नीच अंग के सदृश मूर्खत्वादि गुणवाला हो वह शूद्र है।

अन्यत्र शतपथ-ब्राहमणादि में भी इस मंत्र का ऐसा ही अर्थ किया है। महर्षि ने न केवल गुण, कर्म और स्वभाव से वर्णव्यवस्था स्वीकार की अपितु मनुस्मृति के निम्न श्लोक को उवरित करते हुए यह भी कहा कि जो शूद्र कुल में उत्पन्न होके ब्राहमण, क्षत्रिय और वैश्य के समान गुण, कर्म और स्वभाव वाला हो तो वह शूद्र, ब्राहमण, क्षत्रिय और वैश्य हो जाय, वैसे ही जो ब्राहमण, क्षत्रिय और वैश्य कुल में उत्पन्न हुआ हो और उसके समान गुण, कर्म और स्वभाव शूद्र के सदृश हों तो वह शूद्र हो जाय, वैसे क्षत्रिय वा वैश्य के कुल में उत्पन्न होके ब्राहमण, ब्राहमणी वा शूद्र के समान होने से ब्राहमण और शूद्र भी हो जाता है, अर्थात चारों वर्णों में जिस-जिस वर्ण के सदृश जो-जो पुरुष वा स्त्री हो वह-वह उसी वर्ण में गिनी जावे।

शूद्रो ब्राहमणतामेति ब्राहमणश्चैति शूद्रताम्। क्षत्रियाज्जातमेवन्तु विद्याद्वैश्यात्तथैव च।। मनुं (१०/६५) महर्षि दयानन्द सरस्वती ने यह प्रतिपादित किया कि सब बालक और बालिकाओं को शिक्षा का समान अवसर दिया जाना चाहिए। चाहे वे किसी भी वर्ण या कुल में उत्पन्न हुए हों। स्त्रियों और शूद्रों को शिक्षित करने का उन्होंने प्रबल समर्थन किया।

उन्होंने कहा कि सब मनुष्यों को वेदादि शास्त्र पढ़ने का अधिकार है और अपने कथन के समर्थन में यजुर्वेद का निम्न मन्त्र प्रस्तुत कियाः- यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः। ब्रहमराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय।। (२६/२) महर्षि का यह मानना था कि जन्म से सब शूद्र होते हैं, शिक्षा और संस्कार से ही द्विज बनते हैं।

आर्यसमाज का इतिहास, प्रथम भाग-पृष्ठ-४४५ (प्रधान सम्पादक- डां सत्यकेतु विद्यालंकार) पर महर्षि के विचार निम्न प्रकार वर्णित हैं- ‘‘ महर्षि ने प्रतिपादित यह किया, कि विद्या सबके लिए है और सबको ज्ञान प्राप्ति का एक समान अवसर दिया जाना चाहिए, और शिक्षा की समाप्ति पर ही यह निर्धारित किया जाना चाहिए कि अपनी योग्यता और गुणों के कारण कौन व्यक्ति किस वर्ण में होने के योग्य है। जब वर्ण निर्धारित हो जाए, तो सबको उनके वर्णों के अनुरूप कार्य भी दिया जाना चहिए। ’’

महर्षि अपने जीवन में सदैव जन्मना जातीय व्यवस्था के उन्मूलन और छुआछूत दूर करने के लिए संघर्षरत रहे और उनके द्वारा स्थापित संगठन आर्य समाज ने भी उन्नीसवीं शती के अन्तिम वर्षों और बीसवीं शती के कुछ वर्षों तक सामाजिक कुरीतियों और विषमताओं के विरुद्ध सशक्त आन्दोलन किया जिसके फलस्वरूप जातीय विषमता में काफी गिरावट भी हुई परन्तु धीरे- धीरे आर्यसमाज का यह आन्दोलन शिथिल पड़ने लगा और आज तो यह स्थिति आ चुकी है कि यह महारोग आर्यसमाज के किसी एजेन्डा में भी नहीं है।

इसका कारण आर्यसमाज के केन्द्रीय और प्रान्तीय संगठनों का आपसी फूट या अन्य कारणों से कमजोर हो जाना या समाज के प्रति संवेदनहीन हो जाना भी हो सकता है।जहां कहीं इस दिशा में कोई कार्य हो रहा है, वह कतिपय आर्यजनों या श्रेष्ठ आर्यसमाजों के निजी प्रयासों से ही कार्य किया जा रहा है।

वेद प्रचारिणी सभा नागपुर का नाम एक उत्कृष्ट उदाहरण के रूप में रखा जा सकता है जो समय-समय पर सम्मेलन/गोष्ठियों और प्रचार कार्य करके महर्षि के मिशन को आगे बढ़ा रहे हैं। आज तो स्थिति यह लगती है कि आर्यसमाज के अधिकांश सदस्य भी जातीयता के घेरो से बाहर नहीं निकले प्रतीत होते हैं क्योंकि महर्षि द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों पर चलता हुआ शायद ही कोई दिखाई दे।

आर्यसमाज ने दलित व पिछड़े समाज से जो व्यक्ति विद्वान् या पुरोहित के रूप में बनाए थे, उन्हें स्वयं के विवाह के लिए और उनकी सन्तानों के विवाह के लिए भी समस्याओं का सामना करना पडा़ क्योंकि आर्य या तथाकथित आर्य तो अपने जन्मना जातीय कुलों में ही विवाहादि करते हैं।

पौराणिक लोगों से तो कभी भी यह अपेक्षा नहीं थी कि वे निम्नवर्ण से उच्च वर्ण में किसी को प्रोन्नत होता हुआ देख सकेंगे। आर्यों ने भी कभी वर्णों के उच्चीकरण में कोई सहायक भूमिका नहीं निभाई। यदि वर्णों का निर्धारण समावर्त्तन संस्कार के समय ही किया जाना होता है और महर्षि ने स्वयं ऐसा विधान भी किया है, जैसे कि उपराक्त रूप से वर्णित किया गया है तो आर्य समाज के संगठन के गुरुकुलों में तो कम से कम महर्षि के निर्देशों के अनुरूप शिक्षापूर्ण करनेवाले विद्यार्थियों को क्रमशः ब्राहमण, क्षत्रिय और वैश्य वर्ण का घोषित किया जाना चाहिए।

मनुस्मृति का विधान हजारों वर्ष से चला आ रहा है जिसे महिमा मण्डित करने में और जिसका औचित्य सिद्ध करने में हमारे आर्यसमाज के विद्वानों ने भी हजारों पृष्ठ का लेकर दिए परन्तु व्यवहार के धरातल पर वे एक भी ऐसा उदाहरण प्रस्तुत नहीं कर सकते हैं जिसे आधुनिक समय में किसी को गुण, कर्म और स्वभाव के आधार पर शास्त्रों में वर्णित विधि के अनुसार ब्राहमण, क्षत्रिय या वैश्य घोषित किया गया हो।

ऐसे में गुण, कर्म और स्वभाव के आधार पर हमारे द्वारा मानी जा रही यह व्यवस्था हाथी के दिखावटी दांतों के सदृश ही मानी जायेगी क्योंकि खाने के दांत भिन्नहैं। महर्षि स्वयं वर्णव्यवस्था के वर्तमान स्वरूप से दुःखी थे। उन्होंने जन्म मूलक वर्ण व्यवस्था पर कुल्हाड़ा चलाया।

बाद में जब उन्होंने अनुभव किया कि जन्म हो कर्म से, यह वर्णव्यवस्था समाज के लिए घोर हानिकारक है तो उन्होंने साफ कह दिया -‘‘यह वर्णव्यवस्था तो आर्यों के लिए मरणव्यवस्था बन गई है। देखें इस डाकिन से कब पीछा छूटता है।’’ (अन्तर्राष्टीय आर्य समाज स्मारिका, पृष्ठं ६४) महर्षि के उक्त कथन के परिप्रेक्ष्य में यह विचार करना आवश्यक है कि क्या मनुस्मृति पर आधारित वर्णव्यवस्था आज के समय में व्यावहारिक है? मनुस्मृति पर आधारित वर्णव्यवस्था की व्यावहारिक प्रासंगिकता– १. गुण कर्मों से किसी का वर्ण निश्चित करना अति दुष्कर कार्य है क्योंकि किसी मनुष्य के गुण तो उसे एक वर्ण का बताते हैं परन्तु कर्म दूसरे अन्य वर्ण के होते हैं।

आधुनिक समय में यह भी होता है कि एक व्यक्ति कृषि कार्य करता है और विद्यालय में या निजी स्तर पर घर पर ही बालक-बालिकाओं को शिक्षित करने का व्यवसाय भी करता है। एक व्यक्ति सैनिक है और सेना में पुरोहित का भी कार्य करता है। भारत के कई सेना के जनरल, नौ-सेना के एडमिरल और वायु सेना के अध्यक्ष ऐसे हुए हैं जिन्होंने ब्राहमणों के घर जन्म लिया, जीवन भर सेना में कार्यरत रहने के बाद भी वे क्षत्रिय नहीं हुए और ब्राहमण ही कहलाये।

यही स्थिति अन्य सैनिकों की भी रहती है। जीवनभर कृषि कार्य करने वाले ब्राहमण-जन्मना कभी वैश्य नहीं हो पाए। ऐसी दशा में वर्ण कैसे निश्चित होगा? फिर इस बात का भी कोई भरोसा नहीं है कि वर्तमान गुण, कर्म या व्यवसाय आजीवन वैसे ही बने रहेंगे, इनमें कोई परिवर्तन नहीं होगा।

यदि ये बदल गए तो वर्ण भी परिवर्तित करना पड़ेगा। साथ ही दो या दो से अधिक भिन्न-भिन्न व्यवसाय करने वालों का वर्ण कैसे निर्धारित किया जायेगा? २. संसार में २२० से अधिक देश हैं जिनमें से भारत, नेपाल, बंगलादेश, पाकिस्तान आदि में जहां हिन्दू निवास करते हैं जाति व्यवस्था है, अन्य देशों में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है, फिर भी वहां बुद्धिजीवियों का कार्य, देश की रक्षा का कार्य, वाणिज्य व कृषि और सेवाकार्य सुचारू ढंग से चलता है।

वहाँ पर कोई जातीय वैमनस्य या उसका कोई कारण भी नहीं है। केवल भारत में ही मनुष्यों को विभाजित करने वाले इस विधान का क्या औचित्य है ? ३. भारत में प्रजातंत्र है और इस प्रजातंत्रीय व्यवस्था में मनुष्यों के जीवन को जीने के लिए अधिकार और कर्तव्य संविधान में दिए गए हैं।

संविधान मनुष्यों को समान अधिकार देता है। ऐसे में भी गुण, कर्म और स्वभाव के आधार पर उन्हें विभाजित करना विधि अनुकूल नहीं है। हिन्दुओं में दलित और पिछड़े वर्ग के लोगों की जनसंख्यां प्रतिशत से अधिक है, ऐसे में आर्यसमाज द्वारा मनुस्मृति की इस व्यवस्था को मानने के कारण अधिकांश हिन्दू आर्य समाज के अन्य गुणों को जानते और मानते हुए भी इसकी ओर आकर्षित नहीं होते, इसके विपरीत इसकी निन्दा करने पर उतारू हो जाते हैं।

महर्षि को यदि और अधिक जीवनकाल मिला होता और वे अपने उक्त निष्कर्ष पर पुनः मनन करते तो क्या फिर भी मनुस्मृति आधारित वर्णव्यवस्था लागू करने का परामर्श देते, यह विचारणीय है। समस्त आर्यजनों से निवेदन है कि कृपया महर्षि के जीवन के उक्त निष्कर्ष और लेख में प्रस्तुत बिंदुओं के आधार पर विचार करें कि क्या मनुस्मृति में वर्णित वर्ण व्यवस्था व्यावहारिक है?

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गुलामगिरी : जातिवादी शोषण के ख़िलाफ़ क्रांति एवम् ब्राह्मणवाद पर प्रखर प्रहार का दस्तावेज़

मूकनायक मीडिया ब्यूरो | 11 नवंबर 2024 | जयपुर : आज भी देश के गाँवों में ऐसा माहौल है कि एक दलित किसी उच्च जाति के लोगों के ख़िलाफ़, बिना पिटने की संभावना के कुछ कहने की हिम्मत नहीं करता, न जाति आधारित सामाजिक नियमों से हटकर चलने की।

ब्राह्मणवादी समाज पर कुठाराघात, अछूतों को न्याय, स्त्री समानता और दलितों को शिक्षित करने जैसे विषय इस किताब में सम्मिलित है। गुलामगिरी में हिन्दू देवी-देवताओं को दलितविरोधी बताते हुए उनका खंडन हुआ है।

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आये दिन खबरें पढ़ने को मिलती हैं कि एक दलित नौजवान को घोड़ी चढ़ कर गाँव में बारात नहीं निकालने दी गयी। या एक होनहार दलित लड़की का उच्च परीक्षा में पार होना, गाँव के बड़े लोगों को गवारा नहीं था, तो उसके घर वालों को गाँव से निकाल दिया। दलित महिलाओं को उच्च जाति के मर्दों की ज़्यादतियों से बचे रहने के लिए चौबीस घंटे नए पैंतरे सोचते रहना पड़ता है।

क्या होगा यदि हम गुलामी के इतिहास को एक दृष्टिकोण के रूप में उपयोग करें, जिससे आज हम न्याय की अपनी धारणा पर पुनर्विचार कर सकें? यह विचार कि दासता ने गुलाम लोगों को “अमानवीय” बना दिया, यह सुझाव देता है कि उनकी मानवता को बार-बार साबित करने की आवश्यकता है।

लेकिन इस सबके चलते हुए, देश में जगह-जगह, सदियों से चले आ रहे जातिगत शोषण को तोड़ने के लिए, समता और न्याय के सपने से प्रेरित बहुत से लोग और संगठन अपनी आवाज़ बुलंद कर रहे हैं। समता और न्याय जैसे शब्द हमारे सपने में शामिल हैं और आज हमारे पास, संविधान द्वारा दिये गए अधिकार के रूप में हैं – इस बात के पीछे लगभग डेढ़ सौ साल पहले, ज्योति राव फुले द्वारा लिखी गई पुस्तक, ‘गुलामगिरी’ का बड़ा हाथ है।

ब्राह्मणवादी जातिव्यवस्था से लड़ने का एक लंबा इतिहास है। इस संघर्ष का बीज बोने और फैलाने में, महान विचारक, समाज सेवक और क्रांतिकारी कार्यकर्ता श्री ज्योतिबा फुले और उनकी 1873 में लिखी ‘गुलामगिरी’ पुस्तक का बहुत बड़ी भूमिका है। उस समय जाति व्यवस्था के ख़िलाफ़ अपने बेबाक विचारों को पुस्तक के रूप में लिखना बहुत हिम्मत वाला काम था।

ज्योतिबा फुले व सावित्री फुले का नाम, अधिकतर दलितों और लड़कियों की शिक्षा के संदर्भ में लिया जाता है। यह सही भी है क्योंकि 1848 में पुणे में उन्होंने अछूतों के लिए पहला स्कूल खोला। 1857 में भारत का लड़कियों के लिए पहला स्कूल खोला।

यह एक ऐसी किताब है जिसे अपने पाठक पाने में काफी समय लगा। समकालीन विमर्श में मानवाधिकारों का जो संस्करण हावी है, वह दासता के इतिहास से महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित नहीं है, यद्यपि यदि ऐसा होता तो बेहतर होता।

ऐसा करने के लिए इन दोनों को समाज से बहुत गालियां खानी पड़ीं। जान से मारने के प्रयास भी हुए। लेकिन शिक्षा का काम करने के पीछे उनकी मूल सोच, जाति के नाम पर एक बड़े तबके को गुलामी से मुक्त करवाना थी।

देश की असली संपत्ति बनाने वाले किसान, हर रोज पैसे नहीं कमा पाते। उनकी फसल साल में एक बार ही तैयार होती है, जबकि वे साल भर उधार पर सामान खरीदते हैं। देश की पूरी बैंकिंग व्यवस्था मुख्य रूप से इसी उपज विरोधी बिल आंदोलन पर आधारित है।

धोंडिराव और ज्योतिराव नामक दो पात्रों के संवाद के रूप में लिखी इस पुस्तक में उन्होंने दासता के इतिहास और अपने देश में जातियों की उत्पत्ति की नई स्थापना पेश की। उनका मानना था कि उच्च वर्ण के लोगों ने, अपने श्रम कार्य करने के लिए कुछ लोगों को गुलाम बनाया और ये लोग बाद में शूद्र कहलाए।

यह एक जातिवादी षड्यंत्र का हिस्सा था। गुलामगिरी पुस्तक इस षड्यंत्र की कलाई खोलने वाली पहली पुस्तक थी। उन्होंने ब्राह्मणों और सामंतों के वर्चस्व को स्थापित करने वाले धार्मिक हिंदू ग्रंथों, अवतारों और देवताओं की कहानियों का तार्किक रूप से वैज्ञानिक विश्लेषण करते हुए खंडन किया।

साथ ही अंग्रेजों के कामकाज की भी जातिव्यवस्था के चश्मे से व्याख्या की। इस किताब के माध्यम से उन्होंने जाति व्यवस्था के झूठ को समझाया और दलितों को आत्मसम्मान से जीने के लिए प्रेरित किया। यह करने के लिए उन्होने तर्क का सहारा लेकर बहुत रोचक और सरल तरीके से बातों को समझाया न कि कल्पना व भावनाओं के माध्यम से।

आज के दौर में ‘गुलामगिरी’ का क्या महत्व है, स्वयं फुले ने ‘गुलामगिरी’ की भूमिका में लिखा है — ‘प्रत्येक व्यक्ति को आज़ाद होना चाहिए। यही उसकी बुनियादी आवश्यकता है। जब व्यक्ति आज़ाद होता है, तब उसे अपने विचारों को दूसरों के समक्ष स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त करने का अवसर मिलता है।’

इस किताब की एक और रोचक बात यह है कि फुले ने इसे उन अमरीकी लोगों को समर्पित किया है जिन्होंने अमरीका में गुलामी को खत्म करने का संघर्ष किया। इससे स्पष्ट है कि वे पूरे विश्व में चल रहे अन्याय, शोषण के खिलाफ संघर्षों से जुड़ाव महसूस करते थे। अन्याय के ख़िलाफ़ संघर्ष की उनकी सोच केवल हमारे देश के जातीय अन्याय तक सीमित नहीं थी। वे स्त्रियों पर होने वाले अन्याय, आर्थिक असमानता – प्रत्येक प्रकार के शोषण के विरुद्ध थे।

ज्योतिबा फूले की गुलामगिरी किताब ने अपने समय के सामाजिक-राजनैतिक आंदोलन को बहुत प्रभावित किया और आज भी करती है। उत्तर भारत के सामाजिक कार्यकर्ताओं में इसकी जानकारी बहुत कम है। यह सभी के लिए एक बहुत ही ज़रूरी किताब है, जो जातिवाद से लड़ने का तार्किक रास्ता दिखाती है।

जाति व्यावस्था के विषय में अपने विचारों को मजबूत करने के लिए इसे अवश्य पढ़ा जाना चाहिए। इस किताब को आप अपने मोबाइल में डाउनलोड अवश्य करें और जब भी समय मिले – कहीं जाते-आते या बैल-भैंस चराते हुए इसे ज़रूर पढ़ें।

जातिवादी, विभेदकारी और शोषणकारी व्यवस्था के ख़िलाफ़ आधुनिक भारत में पहली मुखर आवाज़ उठाने वाले थे- ज्योतिबा फूले। उन्होंने समाज में स्थापित ब्राह्मणवादी संरचना के हर तत्व के खिलाफ़ अपना विरोध दर्ज किया। इस बात की तस्दीक़ उनकी लिखी गई किताब ‘गुलामगिरी’ में होती है जिसमें उन्होंने धार्मिक और जातिवादी अवधारणा को अपने तर्कों से ग़लत सिद्ध कर दिया।

साथ ही समाज में यह स्थापित किया कि वे तमाम ग्रन्थ ईश्वर ने नहीं बल्कि उन मनुष्यों ने रचे, जिन्होंने संसाधनों पर कब्ज़ा करके मूल निवासियों को दास बना लिया है और यह सब कुछ उस शोषण को वैध घोषित करने और अपनी सत्ता की सर्वोच्चता बनाए रखने के लिए किया गया था।

उन्होंने ईश्वर पर सवाल दागते हुए कहा, ईश्वर अगर सबका स्वामी है तो भेदभाव क्यों करता है और पुरोहितों की सत्ता के ख़िलाफ़ कहा कि ईश्वर और भक्त के बीच दलाल का क्या काम है। यही कारण है कि फूले भारतीय सामाजिक व्यवस्था में जातिवादी शोषण के ख़िलाफ़ क्रांति के अग्रदूत माने जाते हैं।

गुलामगिरी : ब्राह्मणवाद पर प्रहार

सनातन परंपरा में ईश्वर के उद्धव और धरती पर उनके जीवन की गाथाएं प्रचलित हैं। ये तमाम ग्रन्थ ईश्वरीय अवतारों की बात करते हैं, जिन्होंने ‘राक्षसों’ और ‘अधर्मियों’ का संहार किया और ब्राह्मणों को भयमुक्त किया। इन ग्रन्थों में ब्राह्मण हमेशा सद्चरित, उदार और लोकहित की चिंता करने वाले बताए गए।

मनुस्मृति के पहले अध्याय में प्रकृति के निर्माण, चार युगों, पेशे और ब्राह्मणों की महानता का वर्णन है। इन सब के माध्यम से जनता के मन में वैचारिकी के आधार पर कब्ज़ा करने की कोशिश की गई। ये ‘नैरेटिव’ गढ़कर ब्राह्मणवादी सांस्कृतिक उपनिवेशवाद स्थापित किया गया।

अपनी किताब गुलामगिरी में ज्योतिबा फूले इन सारे नैरेटिव्स को ध्वस्त कर देते हैं। वह बताते हैं कि मत्स्य, कच्छप और वानर जैसे अवतारों की मनुष्यों से तुलना अवैज्ञानिक है। यह संभव ही नहीं है। न ही इनमें लेशमात्र भी सच्चाई है। ज्योतिबा फूले ने वर्णीय संरचना पर भी आघात किया और बताया कि यदि ब्राह्मण ब्रह्मा के मुख से पैदा हुए हैं तो क्या उनके मुख में योनि थी? क्या रजोधर्म के समय उनके मुख से रक्तस्राव होता था?

फूले बताते हैं कि ब्राह्मणों के ये ग्रन्थ भेदभावपूर्ण हैं क्योंकि इनमें भारत से इतर रहने वाले मनुष्यों जैसे अंग्रेजों के बारे में कोई विवरण नहीं है। यह समूची मानव जाति के बारे में कैसे नियम तय कर सकते हैं, अगर सबको स्वयं में शामिल ही नहीं कर सकते।

इन सभी तर्कों का कोई वैज्ञानिक काट उपलब्ध नहीं था, आज भी नहीं है लेकिन, फिर भी ब्राह्मणवादी भेदभाव मौजूद हैं। आज भी निचले स्तर के कामकाज जैसे सीवर आदि की सफ़ाई करने वाला शख्स दलित औ पिछड़ा ही होता है।

आज भी पितृसत्ता और महिला शोषण मौजूद है। दलितों के साथ भेदभाव के कितने ही उदाहरण रोज़ अखबारों में आते हैं, इसलिए फूले की यह क़िताब आज भी प्रासंगिक हैं। इसे पढ़ा जाना चाहिए ताकि इन शोषणों की अवैज्ञनिकता को खारिज़ किया जा सके।

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Decoding Aryan’s Claim ‘The Story Of Our Ancestors And Where We Came From’

MOOKNAYAK MEDIA BUREAU | October 24, 2024 | Jaipur:  That use of first-person plurals in the title of Early Indians: The Story Of Our Ancestors And Where We Came From should not put non-Indians off.

Decoding Aryan’s Claim ‘The Story Of Our Ancestors And Where We Came From’

Tony Joseph has, based on and catalyzed by the most recent genetic research, written a clear, readable and, for those unfamiliar with the subject, fascinating history of Indians as a people. It will also serve both as a primer to the way the ability to read the human genome is revolutionizing archaeology as well as a salutary alternative to the eurocentric perspective of many if not most treatments of early human history.

Decoding Aryan’s Claim ‘The Story Of Our Ancestors And Where We Came From’

What is now India had, it turns out, the world’s largest human population some 20,000 years ago. This is partly because modern humans got to India  early, something like 65,000 years ago—there is some argument about this date, and whether isolated bands might have it made it there earlier, but suffice it to say that this is far earlier than homo sapiens made it to Europe, the route to which seems to have been blocked some combination of poor weather and neanderthals. “The Onge in the Andaman Island,” he notes, “are descendants of the original OoA [Out of Africa] migrants.”

The genetic ancestry of these first Indians “still constitutes between 50 and 65 per cent for most population groups”. (In Europe, by contrast, “the percentage of the original hunter-gatherer ancestry has gone down to single digits” due to a couple of large population replacements in the past 10,000 years.)

The people of the first Indian civilization—the Harappan, but which others of a certain generation might know as the “Indus Valley civilization”—came from Zagros region in what is now Iran. They spoke proto-Dravidian, itself related to Elamite, whence developed the languages still spoken in southern India, an overlay on the original First Indian population. Finally, the self-styled “Aryans” arrived around 4000 years ago with the horse and chariot, and what would become Sanskrit and the Vedas.

Joseph goes into mostly readable detail about how genetic fingerprints are read and compared to deduce this.

Joseph’s extensive of the first-person plural makes it clear whom he is writing for.

Early Indians: The Story of Our Ancestors and Where We Came From,  Tony Joseph (Juggernaut, December 2018)

Early Indians: The Story of Our Ancestors and Where We Came From, Tony Joseph (Juggernaut, December 2018)

The author’s enthusiastic embrace of the subject matter notwithstanding, little of this is particularly controversial—outside, it seems, India itself—nor necessarily dependent on DNA data. Indeed, genetics has, on the whole, confirmed and augmented what had already largely been deduced by archaeological and linguistic evidence.

It has been known for a couple of centuries that Sanskrit was part of the language family now called Indo-European, which includes everything from English and Spanish to Greek, Persian and Hindi but not the Dravidian languages of southern India.

The confluence between archaeology, history, linguistics and geography was nailed a decade or so ago by David W Anthony in The Horse, the Wheel and Language: How Bronze Age Herders from the Eurasian Steppes Shaped the Modern World, a work Joseph cites liberally. When horses, wagons, words for these items, pastoralism and Indo-European languages show up somewhere, they all show up together.

It had also been noted that both the Harappans and the Dravidian languages predated the arrival of these Indo-Europeans and that one might suppose (and did) that the Harappans could well have been (proto-) Dravidian. The Harappan script has never been deciphered, so there was no direct written evidence although there were some hints, one of the most striking of which is that a modern language in Balochistan, Brahui, is related to Dravidian.

That isn’t to deny the value of recent genetic research in confirming these suppositions. Indeed, recent research has, as Joseph notes, made the picture far more detailed and nuanced. India for example has, it appears, a level of genetic diversity that is matched only in Africa. Research has also made it clear that the Indian population is, in the author’s not entirely elegant metaphor, a “pizza” with a genetic crust of First Indians dating back some 60-70,000 years, with sauce and toppings of the various peoples that came later.

The book deftly ties a great deal of recent research together, drawing on results from the Americas—which provide evidence of how fast stone age people can disperse and populate entire continents—Europe and Australia, to put his Indian narrative in a broader context.

Joseph is writing in, and explicitly pushing back against, a pernicious political environment.

Joseph’s extensive of the first-person plural makes it clear whom he is writing for. That may be slightly annoying for the non-Indian reader, but doesn’t really detract from the book, and in some ways grounds it; furthermore, for Western non-Indians, it’s merely getting a taste of our own medicine.

Joseph is however writing in, and explicitly pushing back against, a pernicious political environment. These findings discomfit those whose model is of a unique Indian culture and people dating back to the dawn of the Vedas and who therefore have trouble with the idea that Harappa, India’s entry in the ancient civilizations stakes, constitutes a separate tradition. (It is rather as if Remainers were to claim Stonehenge as an “English” legacy in their Brexit battles.)

In this context, then, Joseph argues not just the science, but also—again, rather uncontroversially—that Indian culture is itself, like the population, the result of diverse sources, Harappan among them. “There is,” he writes,

a disconnect between the earliest Vedas and the culture and practices of the Harappan Civilization, but a connect between the later Vedic corpus and the Harappan Civilization because these by then incorporate some of the ideas and themes of the Harappans.

These terms, “connect” and “disconnect”, are surely the result of the political undercurrents. Joseph quotes another scholar in this context: “unity in diversity”.

And then there is the matter of caste. Joseph reports the (somewhat disturbing) result that “the traditional custodians of the Sanskrit language, the upper castes in general or the Brahmins in particular” have “elevated Steppe ancestry”. Joseph however quotes new studies that show that

between 2200 bce and 100 ce, there was extensive admixture between the different Indian populations with the result that almost all Indians had acquired First Indian, Harappan and Steppe ancestries …

This intermixing stopped around 100 CE, from which, Joseph says, one can conclude that

the caste system in India is not coterminous with the arrival of the ‘Aryans’ in the subcontinent. It fell in place around the ankles of Indian society only about two millennia later.

That’s as may be, but those so inclined can, from the first result, still conclude that caste has some basis other than being a mere social construct.

This all leads into some uncomfortable terrain. It’s one thing to use genetic research to help determine, in the interests of history, which people went where when and thereby to counter some exclusionary national myths. But it may prove a two-edged sword to then use science to build a new, if not myth, then narrative, that regardless of its appeal to tolerance (“We are all Indians. And we are all migrants.”) nevertheless has considerable genetic content.

Joseph writes with an infectious enthusiasm.

Readers already familiar with application of genetics to history and archaeology can skim over Joseph’s long explanations. Indeed, some of the most interesting parts of the book have little to do with genetics.

One of the best sections is that describing the Harappa civilisation, which has been something of the poor relation among the great ancient civilizations, sometimes covered only once the Sumerians and Egyptians have had their due. This is perhaps due to its having eschewed large monuments and lavish burials for town planning, water management and proper sewage; it may also be due to the fact that the Harappan script has never been deciphered, so the people cannot speak to us as can their contemporaries farther west. It may also be, of course, that while Sumer and Egypt’s cultural legacies are apparent in the West, Harappa’s lie in India. Joseph makes a persuasive case that Harappa, likely the largest in both extent and population of these ancient civilizations, should have its stature upgraded.

Joseph also fills in a number of specifically Indian details that I cannot remember coming across in books for the general reader about this period. One is the linguistics used to establish connections between Elamite, Harappa and Dravidian. It turns out that the Akkadian word for sesame, ellu, a supposed Harappan export to Mesopotamia, is the same as that in a number of south Indian Dravidian languages today. And the migration of peoples from East Asian some 4000 years ago brought not only some Austroasiatic languages which still persist in India, but also hybridization of the indica and japonica rice subspecies.

Joseph writes with an infectious enthusiasm. Despite the fact that the research continues apace, and that, therefore, the picture may not remain quite as Joseph describes it, Early Indians is both a readable overview of India’s early history as well as how advances in human genetics—but also linguistics and other sciences—have revolutionized our understanding of pre-history.

Also Read it : https://www.mooknayakmedia.com/politics/discussion/1417/

The book’s subtitle will likely mean that this fascinating tale will not circulate outside India as much as it deserves to. The story merits an “international” edition.


Peter Gordon is editor of the Asian Review of Books.

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