‘राजस्थान के बोली-भूगोल का सर्वेक्षण’ ऐतिहासिक और अनूठा शोध-सर्वे

मूकनायक मीडिया ब्यूरो | 12 जुलाई 2024 | जयपुर : प्रोफ़ेसर राम लखन मीणा द्वारा लिखित नविन पुस्तक ‘राजस्थान के बोली-भूगोल का सर्वेक्षण’ ऐतिहासिक और अनूठा शोध-सर्वे है। पुस्तक का प्रकाशन राजस्थान हिंदी ग्रंथ एकेडमी, जयपुर द्वारा भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय के आर्थिक सहयोग से किया गया है।

राजस्थानी संपूर्ण राजस्थान तथा वर्तमान मध्य-प्रदेश के अंतर्गत स्थित सांस्कृतिक इकाई मालवा की भाषा मानी जाती है। इसके बोलने वालों की संख्या लगभग ग्यारह करोड़ है। भाषाविदों ने राजस्थानी को हिंदी से पृथक भाषा स्वीकार किया है, किंतु इतिहासकारों एवं साहित्यकारों के मध्य वह हिंदी की ही एक उपभाषा मानी जाती है।

‘राजस्थान के बोली-भूगोल का सर्वेक्षण’ ऐतिहासिक और अनूठा शोध-सर्वे

राजस्थानी किसी एक स्थान-विशेष में बोली जाने वाली भाषा नहीं है, अपितु राजस्थान और मालवा में प्रचलित बोलियों (यथा- मारवाड़ी, ढूँढाड़ी, हाड़ोती, मेवाती, निमाड़ी, मालवी आदि) का सामूहिकता सूचक नाम है। उक्त बोलियों के सर्व-समावेशी (Over-all-form) के रूप में साहित्य में प्रतिष्ठित है जिसका विकास एक सुदीर्घ एवं सुस्पष्ट साहित्यिक परम्परा पर आधारित है। इस साहित्यिक स्वरूप में क्षेत्रीय विशेषताएँ भी अनायास ही समाहित हो गयी हैं।

राजस्थान का बोली भूगोल सर्वेक्षण | प्रोफ़ेसर राम लखन मीणा

यह सर्व-समावेशी रूप समस्त राजस्थान और मालवा में पारस्परिक विचार-विनिमयता की दृष्टि से बोधगम्य है और इसीलिए आधुनिक साहित्य (साहित्यिक विधाओं एवं पत्र-पत्रिकाओं) में इसका व्यवहार होता है। राजस्थान में जितनी भी क्षेत्रीय बोलियाँ हैं, उनमें भाषातात्विक दृष्टि से इतना कम अंतर है कि किसी भी बोली-विशेष का वक्ता बिना किसी कठिनाई के राजस्थान में कहीं भी परस्पर विचार-विनिमय कर सकता है।

जब कोई क्षेत्रीय प्रभाव साहित्यिक अभिव्यक्ति में उभर आता है तो वह राजस्थानी की अपनी विशेषता या पूँजी बन जाता है। कहने का अभिप्राय है कि राजस्थानी वह सरिता है जिसमें क्षेत्रीय बोलियाँ रूपी छोटे-छोटे नाले और जलधाराएँ समाविष्ट होकर उसके अभिन्न अंग बन गये हैं। सर्वसमावेशी अभिरचना (Over-all-pattern) की दृष्टि से राजस्थानी एक ऐसी सशक्त, समृद्ध तथा परस्पर बोधगम्य भाषा है जो क्षेत्रीय रूपांतरों को आत्मसात करते हुए राजस्थान और मालवा को एक सूत्र में सुगुंफि़त करने का कार्य करती है।

एक समृदध साहित्यिक भाषा होने के कारण राजस्थानी का हिंदी-क्षेत्र में अत्यधिक महत्त्वपूर्ण तथा उल्लेखनीय स्थान है। हिंदी की उपभाषा होने के कारण उसकी महत्ता और भी बढ़ जाती है। हिंदी भाषा के वैज्ञानिक पुनगर्ठन के लिए यह अत्यावश्यक है कि प्रत्येक सीमावर्ती भाषा या बोली का व्यापक एवं गहन अध्ययन किया जाये जिससे कि प्रत्येक सीमावर्ती भाषा या बोली के महत्त्वपूर्ण भेदक तत्व प्रकाश में आ सकें और इस समस्त सामग्री का हिंदी के अधिकाधिक हित में सर्वसमावेशी दृष्टिकोण से सदुपयोग कर सकें।

जैसा कि पहले कहा जा चुका है; राजस्थानी के भाषायी क्षेत्र के अंतर्गत संपूर्ण राजस्थान तथा वर्तमान मध्यप्रदेश के अंतर्गत सांस्कृतिक इकाई मालवा का व्यापक क्षेत्र आता है, जहाँ के वक्ता अपने बोलचाल स्थानीय पत्र-पत्रिकाओं, समाचार पत्रें तथा साहित्य लेखन में राजस्थानी को बखूबी-अपनाते हैं। यह सर्व-समावेशी रूप समस्त राजस्थान और मालवा में पारस्परिक विचार विनिमयता की दृष्टि से बोधगगम्य है और इसीलिए आधुनिक साहित्य रचना में इसका व्यवहार होता है।

विश्वभर में फैले मारवाड़ी समाज ने राजस्थानी को वैश्विक पहचान दी है इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। वर्तमान में विश्वभर में राजस्थानी भाषा के वक्ता 11 से 12 करोड़ के बीच हैं। राजस्थानी संपूर्ण राजस्थान व वर्तमान मध्य प्रदेश को सांस्कृतिक इकाई मालवा में प्रचलित बोलियों का सामूहिका सूचक नाम है।

राजस्थानी की सीमावर्ती बोलियों में उत्तर में पंजाबी, पूवोत्तर में हरियाणवी, पूर्व में ब्रज, पश्चिमोत्तर में सिंधी, पश्चिम में गुजराती तथा दक्षिण में राजस्थानी के आस-पड़ोस की सभी भाषाओं के आपसी मिलन भागों में संक्रमण क्षेत्र व्याप्त है।

सर्वेक्षण में राजस्थानी के अवशिष्ट एवं समभाषांश क्षेत्रें का अंकन मानचित्रें द्वारा भी किया गया है। राजस्थानी समृदध महत्त्व वाली प्राचीन भाषा है। भारतीय भाषा भगिनियों में अति प्राचीन और समृद्ध इस भाषा का विकास गुर्जरी अपभ्रंश से माना जाता है। प्रसिद्ध भाषाविद डॉ- सुनीति कुमार चाटुर्ज्या, डॉ- ग्रियर्सन और डॉ- तैस्सिटोरी जैसे देश-विदेश के प्रसिद्ध विद्वान राजस्थानी को सर्वथा स्वतंत्र भाषा स्वीकार करते हैं।

विधाओं में वैविध्य और राशि में विपुलता के होते हुए भी देश के स्वतंत्रता युद्ध में और स्वातंत्र्य-सूर्य के उदित होने के पश्चात् भी राजनैतिक चेतना के अभाव में देश के संविधान में इसे मान्यता नहीं दी गयी। राजस्थान के राष्ट्र-प्रेम और राष्ट्रभाषा के प्रति उसकी आसक्ति को एक विशिष्ट गुण के स्थान पर कमजोरी माना गया है और राजस्थानी को एक बोली के रूप में संतुष्ट होना पड़ा।

इस प्रकार समृद्ध साहित्यिक परंपरा युक्त राजस्थानी भाषा अपने घर में अपने न्यायोचित आसन से च्युत कर दी गयी। विशाल राष्ट्रीय भावना एवं अद्भुत साहस से ओत-प्रोत होकर राजस्थान वासियों ने भी इस असत्य को सत्य मान लिया। एक समय था जब राजस्थानी भाषा का ध्वज देश के विशाल भू-भाग के साहित्याकाश में लहराता था और आज दशा यह है कि प्रांतीय भाषाओं की कक्षा में भी उसे स्थान नहीं मिल सका है।

मातृभाषा की इस दयनीय स्थिति से हृदय क्षोभ से भर विचलित हो जाता है, पर संतोष इतना है कि आज परिस्थिति ने एक करवट बदली है और इसकी साहित्य-सेवी संतान अब भी माँ-भारती के आशीर्वाद से इसके विभिन्न अंगों और उपांगों को सबल बनाने में शोधरत एवं संलग्न है। नित नवीन हो रहे इसके शोध कार्यों द्वारा इसके भाषिक तत्वों और विशिष्टताओं में दिन-दूनी रात चौगुनी श्रीवृद्धि हो रही है।

अब राजस्थान के तपःपूत इस ओर जागृत हुए हैं, सरकारी मान्यता के अभाव में भी इस भाषा के आधुनिक साहित्य के निर्माण में अपनी उत्कृष्ट इच्छा अदम्य साहस और प्रतिभा के त्रिवेणी संगम से अपूर्व योगदान दे रहे हैं। इधर राजस्थानी साहित्य अकादमी की स्थापना, केंद्रीय साहित्य अकादमी द्वारा राजस्थानी भाषा को अन्य भारतीय भाषाओं के समकक्ष साहित्यिक मान्यता प्रदान करना तथा राजस्थान सरकार द्वारा एक स्वतंत्र विषय (ऐच्छिक) के रूप में विविध स्तरों पर विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में पाठ्यक्रमों में स्थान देना, इसकी उपर्युक्त धीमी गति को त्वरित करने में सहायक बने हैं।

किंतु, आज राज्य के विश्वविद्यालयों में भाषाविज्ञान और विशेषरूप से राजस्थानी भाषा के भाषावैज्ञानिक अध्ययन-अध्यापन की जो स्थिति है वह निहायत असंतोषजनक है। यह भी कहना अनुचित नहीं होगा कि डॉ. ग्रियर्सन व डॉ. एल-पी- तेस्सितोरी (जिनको राजस्थान से मातृभूमि का सा प्यार हो गया और राजस्थानी भाषा उनकी अपनी भाषा हो गयी) जैसे विद्वानों ने राजस्थानी भाषा व व्याकरण के लेखन में जो पहल की थी और एक मुकाम पर उसे लाने में जो सफलता हासिल की थी वह समाप्त-सी हो गयी है।

इस हासोन्मुखी और दयनीय अवस्था का एक बहुत बड़ा कारण है-राजस्थान के राजनैतिक परिदृश्य में स्वार्थ लोलुप सत्ताधारी व उचित जन चेतना का अभाव तथा शिक्षाविदों की घोर लापरवाही के चलते राजस्थानी भाषा को अपने घर में उचित स्थान नहीं मिल सकना। आज राजस्थान में अनेक उत्साही नवयुवक भाषाविज्ञान की ओर निरंतर अग्रसर हैं। किंतु, सुविधाओं एवं संसाधनों के अभाव में उनके कार्यों में तीव्रता नहीं आ पा रही है।

इससे बड़ी शर्म की बात क्या हो सकती है कि राजस्थान में भाषा-विज्ञान का एक भी अध्ययन-केन्द्र नहीं है, यहाँ तक कि राज्य में विश्वविद्यालयों, स्नातकोत्तर महाविद्यालयों में स्नातकोत्तर हिंदी/राजस्थानी में भाषाविज्ञान के प्रश्न पत्रें को पढ़ाने के लिए भी कुशल प्राध्यापक नहीं हैं। राज्य के विश्वविद्यालयों में एम-ए- हिंदी/राजस्थानी भाषाविज्ञान का जो पाठ्यक्रम है उसका हाल भी बहुत दयनीय स्थिति में है। अधिकतर स्थानों में अभी भी वही विषय पढ़ाए जा रहे हैं जो पिछले तीस सालों से लगे हुए हैं और भाषाविज्ञान विषयक हर दृष्टि से निरर्थक हैं।

यह एक विडंबना ही है कि कुछ अपवादों को छोड़कर अधिकांश स्थानों में अभी भी भाषा की उत्पत्ति, संसार की भाषाओं का वर्गीकरण, ध्वनि परिवर्तन और अर्थपरिवर्तन की दिशाएँ और कारण जैसे बाबा आदम के जमाने और विषय से बिलकुल ही अनभिज्ञ प्राध्यापक एम-ए- हिंदी/राजस्थानी के भाषाविज्ञान को पढ़ाते हैं। उनका सही-सही वर्णन करना तो मेरे बूते के बाहर है।

वे अधकचरे लोग हैं जिनकी किसी भी तरह की भाषाविज्ञान की शिक्षा नहीं हुई और न ही उन्होंने ठीक से इसे पढ़ने का कभी प्रयास ही किया है। वे विषय की प्रगति से बेखबर अपनी कूपमंडूकता में मग्न रहते हैं। मेरी शुभेच्छा है कि भाषाविज्ञान के विशेषज्ञ लोगों की संख्या बढ़े और दूसरे लोगों से निवेदन है कि वे अपने-अपने दायरों को छोड़कर भाषाविज्ञान और हिंदी/राजस्थानी भाषा की पढ़ाई को संगत और सार्थक बनाने में अपना सद्भावनापूर्ण योगदान दें और भाषाविज्ञान के समष्टि अध्ययन को आधार बनाकर हिंदी तथा राजस्थानी भाषाओं के अध्ययन में श्री-वृद्धि करें।

राज्य सरकार को यथा संभव जितना जल्दी हो सके राज्य में दिल्ली, पूना, आगरा, त्रिवेंद्रम तथा अन्नामलाई जैसे केंद्रों की स्थापना करनी चाहिए और उनके माध्यम से राजस्थान की बोलियों का सर्वेक्षण करवाना चाहिए , पर अब तक ऐसा संभव नहीं हो पाया है। राजस्थान में आज भी अनेक बोलियां अज्ञात पड़ी हैं। सर्वेक्षण के माध्यम से उनकी प्रारंभिक जानकारी उपलब्ध हो पायेगी है। भविष्य में इनसे संबंधी महती शोध-कार्य प्रकाश में आयेंगे, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है।

यह सर्वेक्षण कार्य इस कमी को पूरा करने में अपना अहम योगदान दे सकता है। ‘राजस्थान का बोली-भूगोल’ पुस्तक नितांत ही नवीन है। अभी तक ऐसे गूढ़ विषयों का अध्ययन भारतवर्ष में आरंभ नहीं हुआ है। रूपरेखा जिस ढंग से तैयार की गयी है वह एक अनूठा एवं मौलिक कार्य है जिसमें राजस्थान के बोली-भूगोल में उपलब्ध विशिष्ट अभिलक्षणों पर प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है। चूँकि बोली-भूगोल का शिक्षण की दृष्टि से भी व्यापक महत्त्व है। अध्ययन में कई उद्देश्य भी समाहित हैं।

  • पहला उद्देश्य तो यही है कि अध्ययन के आधार पर भाषा-शिक्षक, अनुवादक, कोशकार, वैयाकरण स्वयं अपने-अपने काम की सामग्री तैयार करने में सक्षम होंगे।
  • दूसरा, अध्ययन के आधार पर प्रतिपादित सिद्धांतों के दवारा भाषा-शिक्षण सामग्री का निर्माण कर उसकी प्रविधि में सुधार लाना संभव हो सकेगा।
  • तीसरा, भाषाशिक्षण में होने वाली कठिनाइयों के कारणों का सही-सही आंकलन किया जा सकेगा।
  • चौथा, द्वितीय भाषा शिक्षण में आधार भाषा, लक्ष्य भाषा के सीखने में पैदा होने वाले व्याघातों के समुच्चय, तैयार करने में मदद मिलेगी।
  • पांचवॉं, संपूर्ण देश के वैज्ञानिक भाषा सर्वेक्षण का द्वार खुलेगा इत्यादि।

यहाँ यह स्पष्ट करना अधिक समीचीन होगा कि भारत की पराधीनता के समय जार्ज ग्रिर्यसन ने ‘भारत का भाषा सर्वेक्षण’ करवाया था किंतु उसको वैज्ञानिक इसलिए नहीं कहा जा सकता कि ग्रिर्यसन महोदय ने सारा-का-सारा सर्वे तात्कालिक पटवारियों द्वारा तैयार रिपोर्ट के आधार पर करवाया था। इस वैज्ञानिक युग में पटवारियों की रिपोर्टों के आधार प किये गये भाषा सर्वेक्षण को उचित मानना ठीक नहीं होगा।

इस सर्वे की कलाई उसी समय तब खुल चुकी थी,जब एल.पी.तेसीटरी ने राजस्थानी भाषा और व्याकरण नामक लेख में जो तथ्य प्रस्तुत किये वो चौंकाने वाले थे। स्वयं तेस्सीटरी ने सर्वे को लापरवाही एवं जल्दबाजी में तैयार किये दस्तावेज मात्र की संज्ञा दी थी। ऐसी स्थिति में तार्किकता की कसौटी में कसे सिद्धांतों के आधार पर ‘राजस्थान का बोली-भूगोल’ ज्ञान और अध्ययन के नये द्वार खोलेगा इसमें तनिक भी संदेह नहीं है।

राजस्थान की बोलियों के सर्वेक्षण के इस कार्य से अज्ञात पड़ी अनेकानेक बोलियाँ प्रकाश में लायी गयी हैं। इससे एक तरफ राजस्थानी भाषा अधिक समृद्ध होगी और राजस्थानी की समृद्धता से हिंदी और अधिक संपन्न होगी, यह सर्वेक्षणात्मक अध्ययन का सात्विक उद्देश्य है। राजस्थान का बोली-भूगोल विषयक शीर्षक में सर्वप्रथम सर्वेक्षक के नेतृत्व में राजस्थानी भाषा की सभी जीवित बोलियों का सर्वेक्षण किया गया है।

सर्वे के दौरान सूचकों द्वारा बतायी गयी सूचनाओं, भाषिक विशिष्टताओं को रिकॉर्डिंग एवं सामग्री संकलन द्वारा संग्रहित किया गया है। सर्वेक्षण का कार्य रिकार्डिंग के माध्यम से उपलब्ध सामग्री को विश्लेषित किया गया है। विश्लेषण में भाषाविज्ञान एवं बोली-भूगोल के सर्वमान्य सिद्धांतों को आधार बनाया गया है। इस अध्ययन में राजस्थानी की सभी बोलियों का भौगोलिक क्षेत्र उनकी भाषिक विशिष्टताओं के आधार पर तय किये गये हैं।

सभी बोलियों के ध्वनि स्तर, शब्द स्तर और रूप-संरचना के स्तरों पर तथ्यात्मक विश्लेषण कर उनको मानचित्रवलियों के माध्यम से प्रदर्शित किया गया है। प्रत्येक बोली के क्षेत्र में उनका भौगोलिक वितरण विशिष्ट चिह्नों द्वारा प्रदर्शित किया गया है। सीमावर्ती बोलियों का नामांकन एवं नव बोलियों का अन्वेषण करके उनके बीच मिलने वाले संक्रमण क्षेत्र तथा अवशिष्ट क्षेत्रें को भी चिह्नित करके प्रदर्शित किया गया है।

साथ ही, राजस्थान की सभी बोलियों की भाषिक विशेषताओं एवं वितरण के आधार पर उनके क्षेत्र-निर्धारण भी महत्वपूर्ण कार्य किया गया है। उनकी सीमाओं पर प्राप्त होने वाले संक्रमण क्षेत्रें को भी मानचित्रें में प्रदर्शित किया गया है, इत्यादि- इत्यादि। प्रस्तुतिकरण में बोली-भूगोल और बोली-विज्ञान के अद्यतन सिद्धांतों का निर्वहन किया गया है। प्रस्तुत अध्ययन बोली-भूगोल क्षेत्र में अपना एक अनूठा प्रयास है।

संपूर्ण देश में यह अपनी तरह का एक ऐसा प्रयास होगा जिसमें पहली बार बोलियों का भाषावैज्ञानिक आधार पर सर्वेक्षण एवं विश्लेषण किया गया है। इतना ही नहीं उसके उपरांत उनकी भाषिक विशिष्टताओं सहित मानचित्र के माध्यम से सारी-की-सारी सामग्री को प्रदर्शित किया गया है। अध्ययन अपने आप में प्रथम रुचिकर प्रयास होने के कारण निर्विवाद रूप से उपयोगी एवं महत्त्वपूर्ण होगा।

भारत के किसी भी प्रदेश में सर्वेक्षण के आधार पर बोली-भूगोल अभी तक प्रस्तुत नहीं किया गया है। बोलियों के भौगोलिक क्षेत्रें का परिचय उनकी अपनी व्यतिरेकी विशेषताओं के साथ प्रस्तुत करना बड़ा उपयोगी है क्योंकि अब समय आ गया है कि हम जहाँ प्रारम्भिक कक्षाओं के छात्रें को मानचित्रें क माध्यम से भौगोलिक एवं राजनीतिक ज्ञान कराते हैं, वहीं अब उनकी अपनी प्रथम भाषा (मातृभाषा) के विषय में संपूर्ण जानकारी उपलब्ध कराने के लिए बोली भूगोल को पाठ्यक्रमों में स्थान देकर अधिक रोचक बनाने के सर्वांगीण महत्व के कार्यों को करना चाहिये।

अस्तु, संक्षेप में कह सकते है कि प्रस्तुत अध्ययन की उपयोगिता तथा महत्ता बड़ी स्पष्ट है। राजस्थानी का भाषायी क्षेत्र राजस्थानी किसी एक स्थान-विशेष में बोली जाने वाली भाषा नहीं है, अपितु राजस्थान और मालवा में प्रचलित बोलियाँ (यथा- मारवाड़ी, ढूँढाड़ी, हाड़ोती, मेवाती, निमाड़ी, मालवी आदि) का सामूहिकता-सूचक नाम है जो उक्त बोलियों के सर्व-समावेशी (Over-all form) रूप में साहित्य में प्रतिष्ठित है जिसका विकास एक सुदीर्घ एवं सुस्पष्ट साहित्यिक परंपरा पर आधारित है।

इस साहित्यिकस्वरूप में क्षेत्रीय विशेषताएँ भी अनायास ही समाहित हो गयी हैं। यह सर्व-समावेशी रूप समस्त राजस्थान और मालवा में पारस्परिक विचार-विनियमयता की दृष्टि से बोधव्य है और इसीलिए आधुनिक साहित्य (साहित्यिक विधाओं एवं पत्र-पत्रिकाओं) में इसका व्यवहार होता है। राजस्थान में जितनी भी क्षेत्रीय बोलियाँ हैं, उनमें भाषातात्विक दृष्टि से इतना कम अंतर है कि किसी भी बोली-विशेष का वत्तफ़ा, बिना किसी कठिनाई के, राजस्थान में कहीं भी परस्पर विचार-विनिमय कर सकता है।

जब कभी क्षेत्रीय प्रभाव साहित्यिक अभिव्यक्ति में उभर आता है तो वह राजस्थानी की अपनी विशेषता या पूँजी बन जाता है। कहने का अभिप्राय यह है कि राजस्थानी वह सरिता है जिसमें क्षेत्रीय बोलियाँ रूपी छोटे-छोटे नाले और जलधाराएँ समाविष्ट होकर उसके अभिन्न अंग बन गये हैं। सर्वसमावेशी अभिरचना (Over-all pattern) की दृष्टि से राजस्थानी एक ऐसी, समृद्ध तथा परस्पर बोधगम्य भाषा है जो क्षेत्रीय रूपांतरों को आत्मघात करते हुए राजस्थान और मालवा को एक सूत्र में आबद्ध करने का कार्य करती है।

एक समृद्ध साहित्यिक भाषा होने के कारण राजस्थानी का हिंदी-क्षेत्र अत्यधिक महत्त्वपूर्ण तथा उल्लेखनीय है हिंदी की सीमावर्ती भाषा होने के कारण इसकी महत्ताऔर भी बढ़ जाती है। हिंदी भाषा के वैज्ञानिक पुनर्गठन के लिए यह अत्यावश्यक है कि प्रत्येक सीमावर्ती भाषा या बोली का व्यापक एवं गहन अध्ययन किया जाए जिससे कि प्रत्येक सीमावर्ती भाषा या बोली के महत्त्वपूर्ण भेदक तत्त्व प्रकाश में आ सकें और हम समस्त सुलभ सामग्री का हिंदी के अधिकाधिक हित में सर्वसमावेशी दृष्टिकोण से सदुपयोग कर सकें।

राजस्थानी के भाषायी क्षेत्र के अंतर्गत संपूर्ण राजस्थान तथा वर्तमान मध्यप्रदेश के अन्तर्गत सांस्कृकि इकाई मालवा का व्यापक क्षेत्र आता है, जहाँ के वक्ता अपने बोलचाल, स्थानीय पत्र- पत्रिकाओं समाचार पत्रें व साहित्य लेखन में राजस्थानी को बखूबी अपनाते हैं। यह सर्व- समावेशी रूप समस्त राजस्थान और मालवा में पारस्प्रिक विचार विनिमयता की दृष्टि से बोधव्य है और इसीलिए आधुनिक साहित्य रचना में इसका व्यवहार होता है।

राजस्थानी किसी एक स्थान विशेष में बोली जाने वाली भाषा नहीं है, अपितु राजस्थान और मालवामें प्रचलित बोलियों मारवाड़ी, ढूँढाड़ी, हाड़ोती, मेवाती, निमाड़ी, मालवी, शेखावटी तथा जयपुरी आदि का सामूहिकता-सूचक नाम है। वर्तमान में विश्वभर में राजस्थानी भाषा के वक्ता लगभग 11 से 12 करोड़ के बीच हैं।

राजस्थानी और उसकी सीमावर्ती भाषाएँ एवं बोलियों के बारे में जैसा कि पहले कहा जा चुका है राजस्थानी संपूर्ण राजस्थान व वर्तमान मध्यप्रदेश की सांस्कृतिक इकाई मालवा में प्रचलित बोलियों का सामूहिकता सूचक नाम है।

यह भी पढ़ें : रवीश कुमार की ‘बोलना ही है’ ज्वलंत सवालों की किताब

राजस्थानी की सीमावर्ती बोलियों में उत्तर में पंजाबी पूर्वोत्तर में हरियाणवी, पूर्व में ब्रज, पश्चिमोत्तर में सिंधी, पश्चिम में गुजराती तथा दक्षिण में बुंदेली भाषा का वर्चस्व है। यहाँ यह अवगत कराना भी समीचीन होगा कि राजस्थानी के आस-पड़ोस की सभी भाषाओं के आपसी भागों में संक्रमण क्षेत्र व्याप्त हैं।

बिरसा अंबेडकर फुले फातिमा मिशन को आगे बढ़ाने के लिए ‘मूकनायक मीडिया’ को आर्थिक सहयोग जरूर कीजिए 

MOOKNAYAK MEDIA

At times, though, “MOOKNAYAK MEDIA’s” immense reputation gets in the way of its own themes and aims. Looking back over the last 15 years, it’s intriguing to chart how dialogue around the portal has evolved and expanded. “MOOKNAYAK MEDIA” transformed from a niche Online News Portal that most of the people are watching worldwide, it to a symbol of Dalit Adivasi OBCs Minority & Women Rights and became a symbol of fighting for downtrodden people. Most importantly, with the establishment of online web portal like Mooknayak Media, the caste-ridden nature of political discourses and public sphere became more conspicuous and explicit.

Related Posts | संबद्ध पोट्स

किताबों से प्रेम करने वाले डॉ अंबेडकर ने मनुस्मृति को क्यों जलाया

मूकनायक मीडिया ब्यूरो | 23 दिसंबर 2024 | जयपुर : डॉ. अंबेडकर  मनुस्मृति को ब्राह्मणवाद की मूल संहिता मानते थे। यह किताब द्विजों को जन्मजात श्रेष्ठ और पिछडों, दलित एवं महिलाओं को जन्म के आधार पर निकृष्ट घोषित करती है। पिछड़े-दलितों एवं महिलाओं का एक मात्र कर्तव्य द्विजों और मर्दों का सेवा करना बताती है।

किताबों से प्रेम करने वाले डॉ अंबेडकर ने मनुस्मृति को क्यों जलाया

ऐसी क्या वजहें रही होंगी जो आज से लगभग 92 साल पहले आज ही के दिन 25 दिसम्बर 1927 को बाबासाहेब डॉ भीमराव आंबेडकर को पहली बार मनुस्मृति का प्रतीकात्मक रूप से दहन करना पड़ा? उस दौर में भारतीय समाज में जो कानून चल रहा था वह मनुस्मृति के विचारों पर आधारित था।

किताबों से प्रेम करने वाले डॉ अंबेडकर ने मनुस्मृति को क्यों जलाया

यह एक ब्राह्मणवादी, पुरुष सत्तात्मक, भेदभाव वाला कानून था, जिसमें इंसान को जाति और वर्ग के आधार पर बांटा गया था। आइए जानते हैं जिन व्यवस्थाओं के प्रति बाबासाहेब आंबेडकर को विरोध दर्ज करना पड़ा, उसके पीछे क्या कारण रहे होंगे?

हजारों वर्षों से देश जातिवाद का दंश झेल रहा है जो आज के इस आधुनिक दौर में और भी विकराल रूप लेता दिखाई पड़ रहा है। महिलाओं के अधिकारों की बात हो या वर्ण व्यवस्था में सबसे निचले पायदान पर माने जाने वाले शूद्र की, ऊंची जातियों को इसमें अपना स्वामित्व ही क्यूं नजर आता रहा? क्यूं आज के इस वैश्विक दौर मे हमारा देश और पिछड़ता चला जा रहा है?

जहां मॉब लिंचिंग के बहाने जाति विशेष को निशाना बनाया जा रहा है। क्या यह सब अचानक ही हो रहा है या इसके पीछे कुछ मंशाएं काम कर रही हैं? या हम इतने संवेदनहीन हो गए हैं कि मनुष्य-मनुष्य न होकर सिर्फ जाति रूपी कार्ड दिखाई देने लगा है जो सिर्फ वोट के समय खेला जाता है।

मनुस्‍मृति को बाबासाहेब ने क्यों जलाया ?

  • नीच वर्ण का जो मनुष्य अपने से ऊँचे वर्ण के मनुष्य की वृत्ति को लोभवश ग्रहण कर जीविका – यापन करे तो राजा उसकी सब सम्पत्ति छीनकर उसे तत्काल निष्कासित कर दे।10/95-98

  • ब्राह्मणों की सेवा करना ही शूद्रों का मुख्य कर्म कहा गया है । इसके अतिरक्त वह शूद्र जो कुछ करता है , उसका कर्म निष्फल होता है।10/123-124

  • शूद्र धन संचय करने में समर्थ होता हुआ भी शूद्र धन का संग्रह न करें क्योंकि धन पाकर शूद्र ब्राह्मण को ही सताता है। 10/129-130

  • जिस देश का राजा शूद्र अर्थात पिछड़े वर्ग का हो, उस देश में ब्राह्मण निवास न करें क्योंकि शूद्रों को राजा बनने का अधिकार नहीं है। 4/61-62

  • राजा प्रातःकाल उठकर तीनों वेदों के ज्ञाता और विद्वान ब्राह्मणों की सेवा करें और उनके कहने के अनुसार कार्य करें। 7/37-38

  • जिस राजा के यहां शूद्र न्यायाधीश होता है उस राजा का देश कीचड़ में धँसी हुई गाय की भांति दुःख पाता है। 8/22-23

  • ब्राह्मण की सम्पत्ति राजा द्वारा कभी भी नही ली जानी चाहिए, यह एक निश्चित नियम है, मर्यादा है, लेकिन अन्य जाति के व्यक्तियों की सम्पत्ति उनके उत्तराधिकारियों के न रहने पर राजा ले सकता है। 9/189-190

  • यदि शूद्र तिरस्कार पूर्वक उनके नाम और वर्ण का उच्चारण करता है, जैसे वह यह कहे देवदत्त तू नीच ब्राह्मण है, तब दस अंगुल लम्बी लोहे की छड़ उसके मुख में कील दी जाए। 8/271-272

  • यदि शूद्र गर्व से ब्राह्मण पर थूक दे, उसके ऊपर पेशाब कर दे तब उसके होठों को और लिंग को और अगर उसकी ओर अपान वायु निकाले तब उसकी गुदा को कटवा दे।  8/281-282

  • यदि कोई शूद्र ब्राह्मण के विरुद्ध हाथ या लाठी उठाए, तब उसका हाथ कटवा दिया जाए और अगर शूद्र गुस्से में ब्राह्मण को लात से मारे, तब उसका पैर कटवा दिया जाए। 8/279-280

  • इस पृथ्वी पर ब्राह्मण–वध के समान दूसरा कोई बड़ा पाप नहीं है। अतः राजा ब्राह्मण के वध का विचार मन में भी लाए। 8/381

  • शूद्र यदि अहंकारवश ब्राह्मणों को धर्मोपदेश करे तो उस शूद्र के मुँह और कान में राजा गर्म तेल डलवा दें। 8/271-272

  • शूद्र को भोजन के लिए झूठा अन्न, पहनने को पुराने वस्त्र, बिछाने के लिए धान का पुआल और फ़टे पुराने वस्त्र देना चाहिए ।10/125-126

  • बिल्ली, नेवला, नीलकण्ठ, मेंढक, कुत्ता, गोह, उल्लू, कौआ किसी एक की हिंसा का प्रायश्चित शूद्र की हत्या के प्रायश्चित के बराबर है अर्थात शूद्र की हत्या कुत्ता बिल्ली की हत्या के समान है। 11/131-132

  • यदि कोई शूद्र किसी द्विज को गाली देता है तब उसकी जीभ काट देनी चाहिए, क्योंकि वह ब्रह्मा के निम्नतम अंग से पैदा हुआ है।

  • निम्न कुल में पैदा कोई भी व्यक्ति यदि अपने से श्रेष्ठ वर्ण के व्यक्ति के साथ मारपीट करे और उसे क्षति पहुंचाए, तब उसका क्षति के अनुपात में अंग कटवा दिया जाए।

  • ब्रह्मा ने शूद्रों के लिए एक मात्र कर्म निश्चित किया है, वह है – गुणगान करते हुए ब्राह्मण , क्षत्रिय और वैश्य की सेवा करना।

  • शूद्र यदि ब्राह्मण के साथ एक आसन पर बैठे, तब राजा उसकी पीठ को तपाए गए लोहे से दगवा कर अपने राज्य से निष्कासित कर दे।

  • राजा बड़ी-बड़ी दक्षिणाओं वाले अनेक यज्ञ करें और धर्म के लिए ब्राह्मणों को स्त्री, गृह शय्या, वाहन आदि भोग साधक पदार्थ तथा धन दे।

  • जान बूझकर क्रोध से यदि शूद्र ब्राह्मण को एक तिनके से भी मारता है, वह 21 जन्मों तक कुत्ते-बिल्ली आदि पाप श्रेणियों में जन्म लेता है।

  • ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न होने से और वेद के धारण करने से धर्मानुसार ब्राह्मण ही सम्पूर्ण सृष्टि का स्वामी है।

  • शूद्र लोग बस्ती के बीच में मकान नहीं बना सकते। गांव या नगर के समीप किसी वृक्ष के नीचे अथवा श्मशान पहाड़ या उपवन के पास बसकर अपने कर्मों द्वारा जीविका चलावें।

  • ब्राह्मण को चाहिए कि वह शूद्र का धन बिना किसी संकोच के छीन ले क्योंकि शूद्र का उसका अपना कुछ नहीं है। उसका धन उसके मालिक ब्राह्मण को छीनने योग्य है।

  • राजा वैश्यों और शूद्रों को अपना अपना कार्य करने के लिए बाध्य करने के बारे में सावधान रहें, क्योंकि जब ये लोग अपने कर्तव्य से विचलित हो जाते हैं तब वे इस संसार को अव्यवस्थित कर देते हैं ।

  • शूद्रों का धन कुत्ता और गदहा ही है। मुर्दों से उतरे हुए इनके वस्त्र हैं। शूद्र टूटे-फूटे बर्तनों में भोजन करें। शूद्र महिलाएं लोहे के ही गहने पहने।

  • यदि यज्ञ अपूर्ण रह जाये तो वैश्य की असमर्थता में शूद्र का धन यज्ञ करने के लिए छीन लेना चाहिए ।

  • दूसरे ग्रामवासी पुरुष जो पतित, चाण्डाल, मूर्ख और धोबी आदि अंत्यवासी हो, उनके साथ द्विज न रहें। लोहार, निषाद, नट, गायक के अतिरिक्त सुनार और शस्त्र बेचने वाले का अन्न वर्जित है।

  • शूद्रों के साथ ब्राह्मण वेदाध्ययन के समय कोई सम्बन्ध नही रखें, चाहे उस पर विपत्ति ही क्यों न आ जाए।

  • स्त्रियों का वेद से कोई सरोकार नही होता। यह शास्त्र द्वारा निश्चित है। अतः जो स्त्रियां वेदाध्ययन करती हैं, वे पापयुक्त हैं और असत्य के समान अपवित्र हैं, यह शाश्वत नियम है।

  • अतिथि के रूप में वैश्य या शूद्र के आने पर ब्राह्मण उस पर दया प्रदर्शित करता हुआ अपने नौकरों के साथ भोज कराए।

  • शूद्रों को बुद्धि नही देनी चाहिए। अर्थात उन्हें शिक्षा ग्रहण करने का अधिकार नहीं है। शूद्रों को धर्म और व्रत का उपदेश न करें।

  • जिस प्रकार शास्त्र विधि से स्थापित अग्नि और सामान्य अग्नि, दोनों ही श्रेष्ठ देवता हैं , उसी प्रकार ब्राह्मण चाहे वह मूर्ख हो या विद्वान दोनों ही रूपों में श्रेष्ठ देवता है।

  • शूद्र की उपस्थिति में वेद पाठ नहीं करनी चाहिए।

  • ब्राह्मण का नाम शुभ और आदर सूचक, क्षत्रिय का नाम वीरता सूचक, वैश्य का नाम सम्पत्ति सूचक और शूद्र का नाम तिरस्कार सूचक हो।

  • दस वर्ष के ब्राह्मण को 90 वर्ष का क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र पिता समान समझ कर उसे प्रणाम करे।

  • किसी प्रयोजन की सिद्धि को ध्यान में रखते हुए दिया जाने वाला उपदेश शूद्र को न दिया जाये। उसे जूठा यानी बचा हुआ भोजन न दे और न यज्ञकर्म से बचा हविष्य प्रदान करे। उसे न तो धार्मिक उपदेश दिया जाये और न ही उससे व्रत रखने की बात की जाये।

  • पुरुषों को अपने जाल में फंसा लेना तो स्त्रियों का स्वभाव ही है! इसलिए समझदार लोग स्त्रियों के साथ होने पर चौकन्ने रहते हैं, क्योंकि पुरुष वर्ग के काम क्रोध के वश में हो जाने की स्वाभाविक दुर्बलता को भड़काकर स्त्रियाँ, मूर्ख  ही नहीं विद्वान पुरुषों तक को विचलित कर देती है! पुरुष को अपनी माता, बहन तथा पुत्री के साथ भी एकांत में नहीं रहना चाहिए, क्योंकि इन्द्रियों का आकर्षण बहुत तीव्र होता है और विद्वान भी इससे नहीं बच पाते।

  • पुरुषों को अपने घर की सभी महिलाओं को चौबीस घंटे नियन्त्रण में रखाना चाहिए और विषयासक्त स्त्रियों को तो विशेष रूप से वश में रखना चाहिए! बाल्य काल में स्त्रियों की रक्षा पिता करता है! यौवन काल में पति  तथा वृद्धावस्था में पुत्र उसकी रक्षा करता है! इस प्रकार स्त्री कभी भी स्वतंत्रता की अधिकारिणी नहीं है!

  • स्त्रियों के चाल-ढाल में ज़रा भी विकार आने पर उसका निराकरण करनी चाहिये! क्योंकि बिना परवाह किये स्वतंत्र छोड़ देने पर स्त्रियाँ दोनों कुलों (पति व पिता ) के लिए दुखदायी सिद्ध हो सकती है! सभी वर्णों के पुरुष इसे अपना परम धर्म समझते है! और दुर्बल से दुर्बल पति भी अपनी स्त्री की यत्नपूर्वक रक्षा करता है!

  • स्त्री का पिता अथवा पिता की सहमति से इसका भाई जिस किसी के साथ उसका विवाह कर दे, जीवन-पर्यन्त वह उसकी सेवा में रत रहे और पति के न रहने पर भी पति की मर्यादा का उल्लंघन कभी न करे।

  • स्त्री का पति दु:शील, कामी तथा सभी गुणों से रहित हो तो भी एक साध्वी स्त्री को उसकी सदा देवता के सामान सेवा व पूजा करनी चाहिए। स्त्री को अपने पति से अलग कोई यज्ञ, व्रत या उपवास नहीं करनी चाहिए, क्योंकि उन्हें अपने पति की सेवा-सुश्रुषा से ही स्वर्ग प्राप्त हो जाता है।

मनु के इन कानूनों से अनुमान लगाया जा सकता है कि शूद्रों, अतिशूद्रों और महिलाओं पर किस प्रकार और कितने अमानवीय अत्याचार हुए हैं।

बिरसा अंबेडकर फुले फातिमा मिशन को आगे बढ़ाने के लिए ‘मूकनायक मीडिया’ को आर्थिक सहयोग कीजिए 

 

षड्यंत्र का खुलासा : समरावता गाँव में आधी रात में पुलिस ने पुलिस को मारा सजा नरेश मीणा को क्यों 

मूकनायक मीडिया ब्यूरो | 11 दिसंबर 2024 | जयपुर :  राजस्थान के उपचुनाव में ‘थप्पड़ कांड’ के नरेश मीणा के कारण सियासत में काफी हलचल रही। इधर, नरेश मीणा कब जेल से छूटेंगे? यह पहेली अब तक नहीं सुलझ पाई है। घटना के 26 दिन बीते जाने के बाद भी नरेश मीणा अभी भी टोंक जेल में बंद है।

षड्यंत्र का खुलासा : समरावता गाँव में आधी रात में पुलिस ने पुलिस को मारा सजा नरेश मीणा को क्यों 

समरावता गाँव में आधी रात में पुलिस ने पुलिस को मारा सजा नरेश मीणा को क्यों

जनहित के मुद्दे उठाना हर एक राजनेता का प्राथमिक दायित्व है। नरेश मीणा ने भी वही किया। जब कोई भी इस जनहित के मुद्दे पर अपनी जुबान नहीं खोल रहा था तो नरेश मीणा समरावता गाँव के लोगों को न्याय दिलाने के लिए आगे आये। प्रशासनिक लापरवाही को उजागर किया। शांतिपूर्ण आन्दोलन किया।

पर स्थानीय राजनीति, नरेश मीणा के बढ़ते राजनीतिक कद, और पार्टी लाइन की वजहों से जुबान पर पाबंदी लगे राजनेताओं ने पुलिस-प्रशासन की सहायता से इसे अलग ही मोड़ दे दिया। इस घटना को मनुवादी मीडिया ने मीणा समाज के प्रति अपनी चिपरिचित वैमनस्यता के चलते अलग ही मोड़ दे दिया।

समरावता गाँव में हुए शांतिपूर्ण आंदोलन के बाद स्थानीय पुलिस ने जो असंवैधानिक कार्य किया। उसे, गाँव के ही एक सीसीटीवी फुटेज ने कैद कर लिया। स्थानीय प्रशासन की अमानवीय साजिश के तहत समरावता गाँव के शांति पूर्ण जन आंदोलन में साधा-वर्दी में पुलिसकर्मी भीड़ में शामिल कर दिये।

पुलिस का यह नया प्रयोग नहीं था पर इस नये प्रयोग में नवीनतम प्रयोग यह किया कि सबसे पहले वर्दीधारी पुलिस ने भीड़ पर लाठी चार्ज किया और उसमें भी साधावर्दी (सिविल ड्रेस) में तैनात पुलिस वालों को टारगेट किया गया ताकि नरेश मीणा को फँसाया जा सके। 

यही फाँस नरेश मीणा की ज़मानत नहीं होने दे रही है और इसका तोड़ नरेश मीणा के वकील नहीं निकाल पा रहे हैं। वकीलों ने इस संजीदा प्रकरण को अनुभव की पाठशाला में तब्दील कर दिया है।

यह मामला इतना बढ़ा कि घटना की रात समरावता गांव में पुलिस और नरेश के समर्थकों के बीच जमकर संघर्ष हुआ। आगजनी की घटनाएं हुई, हवाई फायरिंग और आसू गैस के गोले छोड़े गए। अगले दिन भारी पुलिस बल ने नरेश को गिरफ्तार कर लिया।

मूकनायक मीडिया के पास ऐसे अनेक पुलिस कर्मियों की फुटेज उपलब्ध है जिन्होंने शांतिपूर्ण आंदोलन को हिंसक बनाया और सिविल ड्रेस में तैनात पुलिस कर्मियों को वर्दी धारी पुलिस ने मारा पीटा। 

नरेश 14 नवंबर से टोंक जेल में बंद है। उसके साथ कल 63 समर्थक भी जेल में बंद थे। इनमें चार नाबालिग बच्चों को फिलहाल जमानत दे दी गई है। इधर, शनिवार को उनियारा एसीजीएम कोर्ट ने नरेश की जमानत याचिका खारिज कर दी। 

घटना के 26 दिन बाद भी नरेश को नहीं मिली जमानत

प्रदेश में 13 नवंबर को उपचुनाव हुए। इस दौरान देवली उनियारा विधानसभा क्षेत्र के समरावता गांव में जमकर बवाल हुआ। ग्रामीणों के बहिष्कार के बाद भी जबरन वोट डलवाने के मामले में गुस्साएं निर्दलीय प्रत्याशी नरेश मीणा ने एरिया मजिस्ट्रेट अमित चौधरी को थप्पड़ जड़ दिया।

यह भी पढ़ें : भारत के लिए सबसे ज्यादा गोल करने वाले 10 हॉकी खिलाड़ी

इस मामले में नरेश सहित 63 लोगों की गिरफ्तारी हुई। इनमें से चार नाबालिग बच्चों की जमानत हो चुकी है, लेकिन नरेश सहित अन्य लोगों को अभी तक जमानत नहीं मिल पाई है। हालांकि नरेश मीणा ने शनिवार को उनियारा एसीजेएम कोर्ट में अपनी जमानत की याचिका दायर की, लेकिन कोर्ट ने नरेश की जमानत याचिका को खारिज कर दिया।

अब नरेश जमानत के लिए जिला सेशन में करेंगे अपील

थप्पड़ कांड और हिंसा के मामले में नरेश सहित 59 लोग अभी भी टोंक जेल में बंद है। इधर, नरेश को शनिवार को अपनी जमानत को लेकर बड़ा झटका लगा, जहां उनकी जमानत को कोर्ट ने खारिज कर दिया। इधर, अब चर्चा है कि नरेश अपनी जमानत के लिए टोंक जिला सेशन न्यायालय में अपील कर सकते हैं।

नरेश को लंबे समय तक रखने की फिराक में टोंक पुलिस?

समरावता गांव में एरिया मजिस्ट्रेट को थप्पड़ मारने और हिंसा के मामले को लेकर टोंक पुलिस ने नरेश के खिलाफ काफी स्ट्रांग केस बनाया है। इसको लेकर माना जा रहा है कि टोंक पुलिस लंबे समय तक नरेश को जेल में ही रखने का प्रयास कर रही है।

इसको लेकर बीते दिनों अजमेर रेंज के आईजी ओम प्रकाश ने भी संकेत दिये थे। ऐसे में लोगों के बीच चर्चा का विषय है कि आखिर नरेश को कब तक जमानत मिलेगी? बता दें कि नरेश पर टोंक से पहले 23 मामले दर्ज है।

पुलिस सू़त्रों की माने तो पुलिस इन मामलों में भी कार्रवाई करने की तैयारी में है। बता दें कि नरेश मीणा के खिलाफ टोंक पुलिस ने पांच गंभीर धाराओं के तहत मामले दर्ज किए हैं। इसके चलते टोंक पुलिस नरेश को हर एक मामले में कोर्ट में पेश कर, उनकी न्यायिक हिरासत को बढ़ाने का प्रयास कर रही है।

नरेश के समर्थकों ने 17 से सड़कों पर उतरने की चेतावनी दी

इधर, 14 नवंबर से नरेश टोंक जेल में बंद है। उनकी जमानत याचिका खारिज होने के बाद नरेश के समर्थक भड़क गए। इस दौरान रविवार को सवाई माधोपुर में समर्थकों की बैठक हुई, जहां चौथ का बरवाड़ा स्थित मीणा धर्मशाला के पास सर्व समाज की महापंचायत हुई।

इसको लेकर अब लोगों में चर्चा है कि आखिर नरेश को कब तक जमानत मिलेगी? नेतृत्व में नरेश के समर्थकों ने हुंकार भरी है। चेतावनी दी है कि यदि 15 दिसंबर तक नरेश की रिहाई नहीं हुई, तो 17 से प्रदेश के युवा सड़कों पर उतरेंगे। वहीं सवाई माधोपुर में कांग्रेस नेता प्रहलाद गुंजल ने अपनी राजनीतिक रोटियां सेकी। और यह दौर आगे भी जारी रह सकता है!

 कांग्रेस नेता एंव पूर्व विधायक प्रहलाद गुंजल ने साफ-साफ कह दिया कि यदि नरेश मीणा के साथ इंसाफ नहीं हुआ, तो जल्द ही राजस्थान में बड़ा आंदोलन किया जायेगा। उन्होंने कहा कि जनता की मांग है कि 15 तारीख तक नरेश मीणा और उनके साथियों को इंसाफ दिया जाये नहीं तो 17 तारीख से राजस्थान की सड़कों पर युवा वर्ग उतरने को मजबूर हो जायेगा। पर सबसे बड़ी बात यह है कि गुंजल राजनीतिक रोटियाँ सेक रहे हैं।

बिरसा अंबेडकर फुले फातिमा मिशन को आगे बढ़ाने के लिए ‘मूकनायक मीडिया’ को आर्थिक सहयोग जरूर कीजिए 

 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Primary Color

Secondary Color

Layout Mode