मूकनायक मीडिया ब्यूरो | 14 अप्रैल 2024 | दिल्ली – जयपुर – करोली-धौलपुर लोकसभा : बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर आधुनिक भारतीय चिंतकों में एक प्रतिनिधि नाम हैं। वे एक प्रख्यात अर्थशास्त्री, कानूनविद, राजनेता तथा समाज सुधारक थे। अपने प्रगतिशील कृतित्व और रोशन व्यक्तित्व के कारण वे आज भी लाखों लोगों के लिए प्रेरणा स्त्रोत हैं।
रिसर्च : वर्तमान समय में डॉ अंबेडकर की प्रासंगिकता
ऐसे बहुत सारे लोग जिन्हें अपने अधिकारों के लिए कभी आवाज उठाने का अवसर नहीं मिला, जीवन की बुनियादी आवश्यकताओं के लिए रोजमर्रा की जद्दोजहद जिनकी जिन्दगी का सच था; उन सभी लोगों के लिए बाबा साहेब एक सम्पूर्ण और बेहद जरुरी आवाज बन कर आये थे।
भारत रत्न से सम्मानित डॉ बी आर अम्बेडकर का जन्म 14 अप्रैल,1891 में महू (जिसका नाम अब डॉ. अम्बेडकर नगर कर दिया है) मप्र में हुआ था। 14 अप्रैल को उनका जन्मदिवस अम्बेडकर जयंती के रूप में पूरी दुनिया में मनाया जाता है।
बचपन में वे भिवा, भीम, भीमराव के नाम से जाने जाते थे लेकिन आज हम सब उन्हें बड़े आदर के साथ बाबा साहेब अम्बेडकर के नाम से पुकारते हैं। वे बचपन से ही प्रतिभाशाली छात्र थे और उन्होंने कोलंबिया विश्वविद्यालय तथा लंदन स्कूल ऑफ इकॉनोमिक्स दोनों ही विश्वविद्यालयों से अर्थशास्त्र में डॉक्टोरेट की उपाधियां हासिल की।
अर्थशास्त्र के साथ विधि एवं राजनीति विज्ञान में भी शोध कार्य किया। प्रारंभ में वे अर्थशास्त्र के प्रोफेसर रहे, वकालात भी की, लेकिन बाद में वे राजनैतिक गतिविधियों में सम्मिलित होकर भारत की वास्तविक स्वतंत्रता, सामाजिक स्वतंत्रता तथा आर्थिक स्वतंत्रता के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया।
उस समय हिंदू पंथ में अनेक कुरीतियां, छुआछूत और ऊंच-नीच की प्रथायें प्रचलन में थीं। जिसके लिए उन्होंने अथक संघर्ष किया। वे स्वयं दलित वर्ग से सम्बन्धित थे। छुआछूत के दंश को, समाज में व्याप्त सामाजिक असमानता, जाति-व्यवस्था, शूद्रों के साथ होने वाले अमानवीय व्यवहार को उन्होंने अपने बाल्यकाल से देखा-जाना और भोगा था। उस भोगे हुए जीवन-यथार्थ से उन्हें प्रत्येक प्रकार की सामाजिक असमानता के लिए आवाज उठाने की प्रेरणा मिली। उनका मानना था कि “छुआछूत गुलामी से भी बदतर है।”
सन 1927 तक डॉ. अंबेडकर ने छुआछूत के विरूद्ध एक सक्रिय आंदोलन प्रारंभ किया और सार्वजनिक आंदोलन, सत्याग्रह और जुलूसों के माध्यम से पेयजल के सार्वजनिक संसाधन समाज के सभी वर्गों के लिए खुलवाने का प्रयास किया।
वे निरंतर हिंदू समाज को सुधारने, समानता लाने के लिए प्रयास करते रहे, लेकिन कुप्रथाओं की जड़ें इतनी गहरी थीं कि उनका समूल उन्मूलन उन्हें कठिन लगने लगा। एक बार तो वे गहरी हताशा में कहते हैं कि “हमने हिंदू समाज में समानता का स्तर प्राप्त करने के लिए हर तरह के प्रयास और सत्याग्रह किए, परंतु सब निरर्थक सिद्ध हुए। हिंदू समाज में समानता के लिए कोई स्थान नहीं है।”
इसका परिणाम यह हुआ कि 14 अक्टूबर, 1956 को नागपुर में उन्होंने अपने 3.85 लाख समर्थकों के साथ बौद्ध धर्म को अपनाते हुए वंचित दलित समुदाय को नवीन धार्मिक, अध्यात्मिक, नैतिक मूल्यों, रीति रिवाजों की एक जीवंत परंपरा प्रदान की।
उन्होंने भारतीय समाज व्यवस्था, जाति व्यवस्था, धर्म का, अर्थ-तंत्र, वंचित वर्ग के अधिकार, मजदूरों और कामगारों का हित, महिला-अधिकार, व्यवस्थापिका, कार्यपालिका एवं सरकारी सेवा में दलित वर्ग के स्वाभाविक प्रतिनिधितत्व के साथ ही शिक्षा, ज्ञान-विज्ञान आदि मुद्दों पर सर्वाधिक तार्किक ढ़ंग से सोचा-विचारा और अपने निष्कर्षों को हमारे सामने रखा।
वे एक बहुपठित और बहुज्ञ व्यक्तित्व के स्वामी थे. उनका वैचारिक-पक्ष न्यायोचित एवं मानवीय था। उनका सम्पूर्ण जीवन और वैचारिक-भूमिका भारतीय समाज और चेतना में समरसता को स्थापित करने हेतु न्यायोचित परिवर्तन के लिए समर्पित रहा।
उन्होंने अपनी श्रमसाध्य ज्ञानात्मक प्रयासों से यह पाया कि भारतीय समाज व्यवस्था में निहित संरचनाएं, जैसे, जाति-व्यवस्था, वर्ण-व्यवस्था, अस्पृश्यता, ऊंच-नीच, शोषण, अन्याय आदि बाद के दिनों में आये विभिन्न गतिरोधों एवं विकृतियों की उपज हैं न कि प्राचीन भारतीय समाज-व्यवस्था का मूल स्वभाव।
भारतीय समाज व्यवस्था, आर्थिक तंत्र, राजनैतिक प्रक्रियाओं एवं सभ्यता की उपलब्धियां तथा दुविधाओं के प्रति बाबा साहेब का समझ अतुलनीय है। अपनी इसी विशिष्ट प्रतिभा के चलते वे स्वतंत्र भारत के प्रथम विधि एवं न्याय मंत्री बने। वह भारतीय संविधान के जनक एवं भारतीय गणराज्य के निर्माताओं में से एक थे। उनके भारतीय संविधान के अभूतपूर्व योगदान के लिए उन्हें ‘भारतीय संविधान का पितामह’ कहा जाता है। सन् 1951 में उन्होंने ‘भारत के वित्तीय कमीशन’ की स्थापना की।
डॉ. अम्बेडकर की अंतिम पांडुलिपि “द बुद्धा एंड हिज़ धम्म” को पूरा करने के 3 दिन पश्चात्, उनकी मृत्यु 6 दिसंबर, 1956 को दिल्ली में नींद में ही हो गई पर आज भी वे ‘बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर’, ‘जय भीम’, ‘एक महानायक’ के रूप में अमर हैं।
डॉ. अम्बेडकर कहा करते थे, “हम शुरू से लेकर अंत तक भारतीय हैं और मैं चाहता हूँ कि भारत का प्रत्येक मनुष्य भारतीय बने, अंत तक भारतीय रहे और भारतीय के अलावा कुछ न बने।”हम सभी भारतीयों के लिए उनका संदेश “शिक्षित बनो, संगठित बनो, संघर्ष करो” प्रेरणा का स्रोत बना हुआ है। भारतीय संविधान में बहुमूल्य योगदान इस देश को एक नई दिशा देने वाले बाबा साहेब समता, स्वतंत्रता और समरसता के सौन्दर्य के स्वाभाविक प्रतीक पुरुष थे।
उनके क्रांतिकारी विचार और निष्कर्ष, उनके द्वारा खोजे और पाये गये प्राथमिक स्रोतों पर आधारित हैं। इसीलिए वर्तमान समय में भी उनके विचारों की प्रासंगिकता बनी हुई है बल्कि यूं कहें कि और बढ़ गई है।
भारतीय संविधान के मुख्य निर्माता
- बाबासाहेब अंबेडकर की कानूनी विशेषज्ञता और विभिन्न देशों के संविधान का ज्ञान संविधान के निर्माण में बहुत मददगार साबित हुआ। वह संविधान सभा की मसौदा समिति के अध्यक्ष बने और उन्होंने भारतीय संविधान को तैयार करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
- इसके अलावा उनका सबसे महत्त्वपूर्ण योगदान मौलिक अधिकारों, मज़बूत केंद्र सरकार और अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के क्षेत्र में था।
- अनुच्छेद 32 का उद्देश्य मूल अधिकारों के संरक्षण हेतु गारंटी, प्रभावी, सुलभ और संक्षेप उपचारों की व्यवस्था से है। डॉ. अंबेडकर ने अनुच्छेद 32 को संविधान का सबसे महत्त्वपूर्ण अनुच्छेद बताते हुए कहा था कि इसके बिना संविधान अर्थहीन है, यह संविधान की आत्मा और हृदय है।
- उन्होंने एक मज़बूत केंद्र सरकार का समर्थन किया। उन्हें डर था कि स्थानीय और प्रांतीय स्तर पर जातिवाद अधिक शक्तिशाली है तथा इस स्तर पर सरकार उच्च जाति के दबाव में निम्न जाति के हितों की रक्षा नहीं कर सकती है। क्योंकि राष्ट्रीय सरकार इन दबावों से कम प्रभावित होती है, इसलिये वह निचली जाति का संरक्षण सुनिश्चित करेगी।
- उन्हें यह भी डर था कि अल्पसंख्यक जो कि राष्ट्र का सबसे कमज़ोर समूह है, राजनीतिक अल्पसंख्यकों में परिवर्तित हो सकता है। इसलिये ‘वन मैन वन वोट’ का लोकतांत्रिक शासन पर्याप्त नहीं है और अल्पसंख्यक को सत्ता में हिस्सेदारी की गारंटी दी जानी चाहिये। वह ‘मेजरिटेरियनिज़्म सिंड्रोम’ (Majoritarianism Syndrome) के खिलाफ थे और उन्होंने अल्पसंख्यकों के लिये संविधान में कई सुरक्षा उपाय सुनिश्चित किये।
- भारतीय संविधान विश्व का सबसे अधिक व्यापक और विशाल संविधान है क्योंकि इसमें विभिन्न प्रशासनिक विवरणों को शामिल किया गया है। बाबासाहेब ने इसका बचाव करते हुए कहा कि हमने पारंपरिक समाज में एक लोकतांत्रिक राजनीतिक संरचना बनाई है। यदि सभी विवरण शामिल नहीं होंगे तो भविष्य में नेता तकनीकी रूप से संविधान का दुरुपयोग कर सकते हैं। इसलिये ऐसे सुरक्षा उपाय आवश्यक हैं। इससे पता चलता है कि वह जानते थे कि संविधान लागू होने के बाद भारत को किन व्यावहारिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है।
संवैधानिक नैतिकता
- बाबासाहेब अंबेडकर के परिप्रेक्ष्य में संवैधानिक नैतिकता का अर्थ विभिन्न लोगों के परस्पर विरोधी हितों और प्रशासनिक सहयोग के बीच प्रभावी समन्वय होगा।
- उनके अनुसार, भारत को जहाँ समाज में जाति, धर्म, भाषा और अन्य कारकों के आधार पर विभाजित किया गया है, एक सामान्य नैतिक विस्तार की आवश्यकता है तथा संविधान उस विस्तार में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।
लोकतंत्र
- उन्हें लोकतंत्र पर पूरा भरोसा था। उनका मानना था कि जो तानाशाही त्वरित परिणाम दे सकती है वह सरकार का मान्य रूप नहीं हो सकती है। लोकतंत्र श्रेष्ठ है क्योंकि यह स्वतंत्रता में अभिवृद्धि करता है। उन्होंने लोकतंत्र के संसदीय स्वरूप का समर्थन किया, जो कि अन्य देशों के मार्गदर्शकों के साथ संरेखित होता है।
- उन्होंने ‘लोकतंत्र को जीवन पद्धति’ के रूप में महत्त्व दिया, अर्थात् लोकतंत्र का महत्त्व केवल राजनीतिक क्षेत्र में ही नहीं बल्कि व्यक्तिगत, सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में भी है।
- इसके लिये लोकतंत्र को समाज की सामाजिक परिस्थितियों में व्यापक बदलाव लाना होगा, अन्यथा राजनीतिक लोकतंत्र यानी ‘एक आदमी, एक वोट’ की विचारधारा गायब हो जाएगी। केवल एक लोकतांत्रिक समाज में ही लोकतांत्रिक सरकार की स्थापना से उत्पन्न हो सकती है, इसलिये जब तक भारतीय समाज में जाति की बाधाएँ मौजूद रहेंगी, वास्तविक लोकतंत्र की स्थापना नहीं हो सकती। इसलिये उन्होंने लोकतंत्र और सामाजिक लोकतंत्र सुनिश्चित करने के लिये लोकतंत्र के आधार के रूप में बंधुत्व और समानता की भावना पर ध्यान केंद्रित किया।
- सामाजिक आयाम के साथ-साथ अंबेडकर ने आर्थिक आयाम पर भी ध्यान केंद्रित किया। वे उदारवाद और संसदीय लोकतंत्र से प्रभावित थे तथा उन्होंने इसे भी सीमित पाया। उनके अनुसार, संसदीय लोकतंत्र ने सामाजिक और आर्थिक असमानता को नज़रअंदाज किया। यह केवल स्वतंत्रता पर केंद्रित होती है, जबकि लोकतंत्र में स्वतंत्रता और समानता दोनों की व्यवस्था सुनिश्चित करना ज़रुरी है।
तथ्य पत्र
- वर्ष 1923 में उन्होंने ‘बहिष्कृत हितकारिणी सभा (आउटकास्ट्स वेलफेयर एसोसिएशन)’ की स्थापना की, जो दलितों के बीच शिक्षा और संस्कृति के प्रचार-प्रसार के लिये समर्पित थी।
- वर्ष 1930 के कालाराम मंदिर आंदोलन में अंबेडकर ने कालाराम मंदिर के बाहर विरोध प्रदर्शन किया, क्योंकि दलितों को इस मंदिर परिसर में प्रवेश नहीं करने दिया जाता था। इसने भारत में दलित आंदोलन को शुरू करने में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
- डॉ. अंबेडकर ने हर बार लंदन में तीनों गोलमेज़ सम्मेलनों (1930-32) में भाग लिया और सशक्त रूप से ‘अछूत’ के हित में अपने विचार व्यक्त किये।
- वर्ष 1932 में उन्होंने महात्मा गांधी के साथ पूना समझौते (Poona Pact) पर हस्ताक्षर किये, जिसके परिणामस्वरूप वंचित वर्गों के लिये अलग निर्वाचक मंडल (सांप्रदायिक पंचाट) के विचार को त्याग दिया गया। हालाँकि दलित वर्गों के लिये आरक्षित सीटों की संख्या प्रांतीय विधानमंडलों में 71 से बढ़ाकर 147 तथा केंद्रीय विधानमंडल में कुल सीटों का 18% कर दी गई।
- वर्ष 1936 में बाबासाहेब अंबेडकर ने स्वतंत्र लेबर पार्टी (Independent Labour Party) की स्थापना की।
- वर्ष 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान उन्होंने बड़ी संख्या में नाज़ीवाद को हराने के लिये भारतीयों को सेना में शामिल होने का आह्वान किया।
- 14 अक्तूबर, 1956 को उन्होंने अपने कई अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म ग्रहण किया। उसी वर्ष उन्होंने अपना अंतिम लेखन कार्य ‘बुद्ध एंड हिज़ धर्म’ (Buddha and His Dharma) पूरा किया।
- वर्ष 1990 में डॉ. बी. आर. अंबेडकर को भारत रत्न पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
- 14 अप्रैल, 1990 से 14 अप्रैल, 1991 की अवधि को बाबासाहेब की याद में ‘सामाजिक न्याय के वर्ष’ के रूप में मनाया गया।
- भारत सरकार द्वारा डॉ. अंबेडकर फाउंडेशन को सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय (Ministry of Social Justice and Empowerment) के तत्त्वावधान में 24 मार्च, 1992 को सोसायटी पंजीकरण अधिनियम (Societies Registration Act), 1860 के तहत एक पंजीकृत सोसायटी के रूप में स्थापित किया गया था।
- फाउंडेशन का मुख्य उद्देश्य बाबासाहेब डॉ. बी.आर. अंबेडकर की विचारधारा और संदेश को भारत के साथ-साथ विदेशों में भी जनता तक पहुँचाने के लिये कार्यक्रमों और गतिविधियों के कार्यान्वयन की देखरेख करना है।
- डॉ. अंबेडकर की कुछ महत्त्वपूर्ण कृतियाँ: समाचार पत्र मूकनायक (1920), एनिहिलेशन ऑफ कास्ट (1936), द अनटचेबल्स (1948), बुद्ध ऑर कार्ल मार्क्स (1956) इत्यादि।
वर्तमान समय में अंबेडकर की प्रासंगिकता
- भारत में जाति आधारित असमानता अभी भी कायम है, जबकि दलितों ने आरक्षण के माध्यम से एक राजनीतिक पहचान हासिल कर ली है और अपने स्वयं के राजनीतिक दलों का गठन किया है, किंतु सामाजिक आयामों (स्वास्थ्य और शिक्षा) तथा आर्थिक आयामों का अभी भी अभाव है।
- सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और राजनीति के सांप्रदायिकरण का उदय हुआ है। यह आवश्यक है कि संवैधानिक नैतिकता की अंबेडकर की दृष्टि को भारतीय संविधान में स्थायी क्षति से बचाने के लिये धार्मिक नैतिकता का समर्थन किया जाना चाहिये।
- इतिहासकार आर.सी. गुहा के अनुसार, डॉ. बी.आर. अंबेडकर अधिकांश विपरीत परिस्थितियों में भी सफलता का अनूठा उदाहरण हैं। आज भारत जातिवाद, सांप्रदायिकता, अलगाववाद, लैंगिग असमानता आदि जैसी कई सामाजिक-आर्थिक चुनौतियों का सामना कर रहा है। हमें अपने भीतर अंबेडकर की भावना को खोजने की ज़रूरत है, ताकि हम इन चुनौतियों से खुद को बाहर निकाल सकें।